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________________ २३० ] अष्टसहस्री [ कारिका ३[ जनमतमंतरेण सर्वेऽपि मतावलंबिनस्तीर्थच्छेदसंप्रदाया भवंतीति साध्यते जैनाचार्यः । तदेवं कारिकाव्याख्यानमनवद्यमवतिष्ठते । तीर्थच्छेदसम्प्रदायानां तथा सर्वमवगतमिच्छतामाप्तता' नास्ति, परस्परविरुद्धाभिधानात्, एकानेकप्रमाणवादिनां 'स्वप्रमाव्यावृत्तरिति । 'एकप्रमाणवादिनो हि संवेदनाद्वैतावलम्बिनश्चित्राद्वैताश्रयिणः परब्रह्मशब्दाद्वैतभाषिणश्च सुगतादयो यथा तीर्थच्छेदसम्प्रदायास्तथा प्रत्यक्षमेकमेव प्रमाणमिति वदन्तोपि चार्वाकाः, परमागमनिराकरणसमयत्वात् । यथा च कपिलादयोनेकप्रमाणवादिन [ सर्वज्ञ सामान्य की सिद्धि में विसंवाद करने वाले मीमांसक, चार्वाक और तत्त्वोपप्लववादियों के यहाँ आत्मा के सद्भाव को सिद्ध करके इस समय उस सर्वज्ञ विशेष में विसंवाद करने वाले सौगत, सांख्यादि के प्रति त के सद्भाव को सिद्ध करते हैं। एवं जैनमत के सिवाय अन्य सभी मतावलंबी जन तीर्थच्छेद संप्रदाय वाले हैं इस बात को जैनाचार्य सिद्ध करते हैं। ] उपर्युक्त प्रकार से कारिका का व्याख्यान निर्दोष सिद्ध हो जाता है। "तीर्थच्छेद संप्रदाय वाले तथा सभी को सर्वज्ञ मानने वालों के आप्तता नहीं है क्योंकि उनके कथन परस्पर में विरुद्ध हैं तथा एक और अनेक प्रमाणवादियों के यहाँ अपने प्रमा-ज्ञान की व्यावृत्ति हो जाती है। [ एक ही प्रमाण को मानने वाले कौन-कौन हैं ? ] संवेदनाद्वैतवादी, चित्राद्वैतवादी, परमब्रह्माद्वैतवादी और शब्दाद्वैतवादी बौद्ध आदि एक प्रमाणवादी हैं। जैसे ये एक प्रमाण मानने वाले तीर्थच्छेद संप्रदाय वाले हैं वैसे ही प्रत्यक्ष एक ही प्रमाण है ऐसा कहने वाले चार्वाक भी तीर्थच्छेद संप्रदाय वाले हैं क्योंकि वे परमागम के समय-संप्रदाय का निराकरण करने वाले हैं। [ अनेक प्रमाण को मानने वाले कौन कौन हैं ? ] जैसे कपिल आदि अनेक प्रमाणवादी तीर्थच्छेद संप्रदाय वाले हैं वैसे ही तत्त्वोपप्लववादी भी हैं क्योंकि उन लोगों ने एक भी प्रमाण नहीं माना है । "नैक प्रमाणवादिनोऽनेकप्रमाणवादिनः" ऐसा व्याख्यान है । अर्थात् "न एक प्रमाणं अनेकप्रमाणं" ऐसा नञ् समास करने पर यहाँ प्रसज्यप्रतिषेध अर्थ लेना अर्थात् सर्वथा ही निषेध अर्थ होता है। तथा सभी आप्त, आगम और पदार्थ के समूह को स्वीकार करने की इच्छा करते हुए भी अनेक प्रमाणवादी वैनयिकजन तीर्थच्छेदसंप्रदाय वाले हैं। उन सभी में आप्तपना नहीं है क्योंकि वे सभी परस्पर विरुद्ध दो अर्थों का कथन करने वाले हैं। 1 वक्ष्यमाणप्रकारेण । 2 सर्वज्ञसामान्ये विप्रतिपत्तिमतां मीमांसकचार्वाकतत्त्वोपप्लववादिनामात्मत्वसद्भावं प्रसाध्येदानीं तद्विशेषविप्रतिपत्तिमतां सौगतादीनां निर्वचनं साधयति तीर्थेत्यादिना। 3 कारिकास्थितस्य सर्वेषामिति पदस्य विवरणमिदं, सर्वमिच्छंतीति सर्वेषस्तेषामिति निर्वचनात् । (ब्या० प्र०) 4 स्वेन स्वकीयपरिच्छित्त्यभावात् । (ब्या० प्र०) 5 प्रमितिः । (ब्या० प्र०) 6 विघटनात् । (ब्या० प्र०) 7 एकतत्त्ववादिनः । (ब्या० प्र०) 8 समय: सम्प्रदायः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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