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________________ २२८ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३तत्त्वोपप्लववादी के खंडन का सारांश तत्त्वोपप्लववादी-हम प्रमाण प्रमेयादि कुछ भी तत्त्व नहीं मानते हैं क्योंकि सभी तत्त्व उपप्लुत-नष्ट-अभाव रूप ही हैं। जैन—“सभी तत्त्व उपप्लुत हैं" यह कथन प्रमाण के बिना केवल वचनमात्र से ही सिद्ध है तथैव "सभी तत्त्व अनुपप्लुत हैं" यह बात भी वचनमात्र से ही क्यों न सिद्ध हो जावे ? आप शून्यवादी के यहाँ कोई प्रमाण तो है नहीं। प्रत्यक्ष को विषय करने वाला प्रत्यक्ष, अनुमेय को विषय करने वाला अनुमान और अत्यंत परोक्ष को विषय करने वाला आगम ये तीनों प्रमाण-सर्वज्ञ कहलाते हैं। यदि आप कहें कि पर के यहाँ प्रसिद्ध प्रमाण से हम अभाव-शून्यवाद सिद्ध कर देंगे तो वह पर के यहाँ प्रसिद्ध प्रमाण प्रमाण से सिद्ध है या नहीं ? यदि सिद्ध है तो वादी प्रतिवादी सभी को सिद्ध है अन्यथा-असिद्ध है तो सभी को असिद्ध है क्योंकि बिना प्रमाण के सिद्ध हम जनों को कुछ भी मान्य नहीं है । इस प्रकार से आप शून्यवादी सकल तत्त्वों के जानने वाले प्रमाणों से रहित सभी पुरुषों को जानते हुए स्वयं आपका ही खंडन कर लेते हैं क्योंकि "सभी पुरुष तत्त्वों के ग्राहक प्रमाण से रहित हैं" ऐसा जिसने जान लिया वही तो प्रमाण-सर्वज्ञ सिद्ध हो गया और यदि आप प्रमाण को स्वीकार कर लेवें तब तो तत्त्वोपप्लव ही समाप्त हो जावेगा। यदि आप कहें कि प्रमाण की प्रमाणता स्वतः व्यवस्थित है तो सभी के इष्ट तत्त्व सिद्ध हो जावेंगे । अच्छा! हम शून्यवादी आप जैनों से पूछते हैं कि प्रमाण की प्रमाणता कैसे जानी जाती है ? निर्दोषकारक से जन्य होने से, बाधा की उत्पत्ति न होने से, प्रवृत्ति की सामर्थ्य से या अविसंवादी पने से ? यदि प्रथम पक्ष लेवो तो कारकों की निर्दोषता कैसे जानी ? प्रत्यक्ष से या अनुमान से ? प्रत्यक्ष से तो अतींद्रिय निर्दोषता का ग्रहण नहीं है एवं अविनाभावी लिंग न होने से अनुमान भी नहीं बता सकता । दूसरा पक्ष लेवो तो मरीचिका में भी "यह जल नहीं है" ऐसा बाधक कारण न होने से प्रमाणता आ जावेगी। प्रवृत्ति की सामर्थ्य से ज्ञान में प्रमाणता मानने से भी अनवस्था आती है तथा चतुर्थ पक्ष भी बाधित ही है । यहाँ पूर्व के दो पक्ष मीमांसक की अपेक्षा हैं । तीसरा पक्ष नैयायिक से संबंधित है एवं चौथा पक्ष बौद्धों के खंडन के लिये है। मीमांसक प्रमाण की प्रमाणता स्वतः मानता है, नैयायिक पर से मानता है एवं बौद्ध अर्थक्रिया सद्भाव लक्षण अविसंवाद ज्ञान को अभ्यास दशा में स्वतः प्रमाण कहता है किन्तु बौद्ध के यहाँ उत्पन्न होते ही ज्ञान उसी क्षण में नष्ट हो जाता है अतः अभ्यास असम्भव है, यदि सन्तान से कहो तो वह अवस्तु है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि आप शून्यवादी का कथन शून्यरूप व्यर्थ ही है। हम स्याद्वादी ज्ञान की प्रमाणता "अदुष्टकारकसंदोहजन्य' इत्यादि चार कारणों से नहीं मानते हैं। हम तो "सुनिश्चिता संभवद्बाधक प्रमाण" से प्रमाण की प्रमाणता सिद्ध करते हैं क्योंकि "ज्ञान स्वार्थव्यवसायात्मक है" वह उपर्युक्त हेतु से सिद्ध है । तथा हमारे यहाँ अभ्यस्त विषय में स्वतः और अनभ्यस्त विषय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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