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तत्त्वोपप्लववाद । प्रथम परिच्छेद
[ २२७ इसलिये यह ठीक ही कहा है कि ये तत्त्वोपप्लववादी स्वयं स्वप्रसिद्ध एक प्रमाण से अथवा परप्रसिद्ध एक प्रमाण से विचार-परीक्षा के उत्तरकाल में भी प्रमाण तत्त्व और प्रमेयतत्त्व को उपप्लुत-नष्ट-प्रलय-अभाव-शून्य रूप जानते हुये अपनी आत्मा का ही अभाव कर लेते हैं । आपकी इस बात से यह शून्यवाद नष्ट हो जाता है।
भावार्थ-तत्त्वोपप्लववादी का कहना है कि सभी प्रमाण तत्त्व एवं प्रमेयतत्त्व अभाव रूप ही हैं क्योंकि किंचित् भी तत्त्व न तो प्रमाण से सिद्ध है न अनुमान से। इत्यादि प्रकार से तत्त्वों का अभाव करके वह कहता है कि हम आस्तिकवादी लोगों के द्वारा मान्य प्रमाण तत्त्व पर विचार करते हैं कि आप सभी जन प्रमाण की प्रमाणता को किस प्रकार से सिद्ध करते हैं निर्दोष कारणों से उत्पन्न होने से या बाधा के उत्पन्न न होने से, प्रवृत्ति की सामर्थ्य से अथवा अविसंवादी पने से ? इन चारों हेतुओं से ज्ञान में प्रमाणता नहीं आ सकती है । अतः ज्ञान की प्रमाणता की सिद्धि न होने से प्रमेयतत्त्व-ज्ञेय पदार्थ भी सिद्ध नहीं हो सकते हैं। क्योंकि ज्ञान के बिना ज्ञेय पदार्थ कहाँ से सिद्ध होंगे? पुनः उसने इस बात को भी सिद्ध किया कि हम शन्यवादियों का तत्त्व सर्वथा ही परीक्षा करने योग्य नहीं है क्योंकि वह अभाव-शून्य रूप है, हम तो तत्त्ववादी जैनादिकों के द्वारा स्वीकृत प्रमाण, प्रमेयतत्त्व की परीक्षा करके उसका अभाव सिद्ध कर देते हैं उसी से ही हमारे शून्यवाद की सिद्धि हो जाती है।
इस पर जैनाचार्यों ने उत्तर दिया है कि हम लोग निर्दोषकारक जन्य आदि हेतुओं से प्रमाण की प्रमाणता नहीं मानते हैं किंतु सुनिश्चितासंभवद्बाधकरूप स्वार्थ व्यवसायात्मक ज्ञान की प्रमाणता
दशा में स्वतः एवं अनभ्यासदशा में पर से मानते हैं अतः प्रमाणतत्त्व भी सिद्ध है एवं प्रमेयतत्त्व भी षड्द्रव्यरूप अखिल जगत्रूप से सिद्ध ही है क्योंकि "प्रतीतेरपलाप: कत्तु न शक्यते कैश्चित्" इस सक्तिके अनसार जो स्पष्ट रूप से अनभव में आ रहा है उसका लोप करना शक्य नहीं है। एवं जो शून्यवादी किसी वस्तु को मानने को ही तैयार नहीं हैं तो उन्हें किसी भी विषय में परीक्षा करने का भी अधिकार नहीं है क्योंकि जो स्वयं अपने आपके ही अस्तित्व को नहीं मानते हैं वे किसी भी विषय में अस्ति-नास्ति की परीक्षा भी कैसे कर सकेंगे ? यदि जबरदस्ती करेंगे तो फिर बन्ध्या का पुत्र भी आकाश के फलों की सुगंधि या दुर्गधि की परीक्षा कराते बैठेगा या वह आकाशपुष्प भी किसी के गले का हार बनेगा और किसी के सिर पर चढ़ने का प्रयत्न कर डालेगा किंतु ऐसा तो संभव नहीं है अतः शून्यवादी जन भी अपना शून्यवाद स्थापन करते हैं यह कथन हास्यास्पद ही है।
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