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________________ २२६ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३[ अधुनोपप्लववादिनः मतस्योपप्लवं कुर्वन्ति जैनाचार्याः ] पराभ्युपगमं च स्वयं प्रतीयन्नेव न प्रत्येमीति ब्रुवाणः कथं स्वस्थः ? स्वयमप्रतीयंस्तु पराभ्युपगमं ततः किञ्चित्प्रत्येतीति दुरवबोधं-सोयं किञ्चिदपि' स्वयं निर्णीतमनाश्रयन् क्वचिद्विचारणायां व्याप्रियत इति' न 1"बुध्यामहे', किञ्चिनिर्णीतमाश्रित्य विचारस्यानिीतेर्थे प्रवृत्तेः । सर्वविप्रत्तिपत्तौ तु क्वचिद्विचारणानवतारात् । तदुक्तं "किञ्चिन्निोतमाश्रित्य विचारोन्यत्र वर्तते। सर्वविप्रतिपत्तौ तु क्वचिन्नास्ति विचारणा" इति । 1 ततः सूक्तं, तत्त्वोपप्लववादिनः स्वयमेकेन प्रमाणेन स्वप्रसिद्धेन परप्रसिद्धेन वा विचारोत्तरकालमपि प्रमाणतत्त्वं प्रमेयतत्त्वं चोपप्लुतं संविदन्त एवात्मानं निरस्यन्तीति व्याहति:14 । तो वह पर की स्वीकृति भी अन्य पर की स्वीकृति की अपेक्षा रखेगी इस प्रकार से अनवस्था ही आ जावेगी। [ अब जैनाचार्य उपप्लववादी के मत का ही उपप्लव कर रहे हैं। ] इस प्रकार से पर की स्वीकृति को स्वयं अनुभव करते हुये ही आप 'मैं अनुभव नहीं करता हूँ" इस प्रकार बोलते हुये स्वस्थ कैसे हैं ? अर्थात् अस्वस्थ ही हैं। तथा यदि आप स्वयं पर की स्वीकृति को विषय न करते हुए भी "कोई उस पर स्वीकृति से किंचित् वस्तु मात्र का अनुभव करता है" इस प्रकार से कहते हैं तब तो यह बात अत्यन्त दुष्कर ही है। इस प्रकार से आप शून्यवादी कुछ भी स्वयं निश्चित (गांठ के तत्त्व) का आश्रय न लेते हुये किसी भी विषय की परीक्षा में प्रवृत्त होते हैं यह बात हमारी समझ में नहीं आती है। अर्थात् आप शन्यवादी के यहाँ कुछ प्रमाणादि की प्रसिद्धि हुये बिना अन्य हम लोगों के यहाँ परीक्षा और संदेह करना कदापि शक्य नहीं है क्योंकि किंचित् भी निश्चित् का आश्रय लेकर अनिर्णीत विषय में परीक्षा होती है किन्तु सभी जगह विसंवाद हो जाने पर तो कहीं पर परीक्षा भी नहीं हो सकती है अथवा अक्षर ज्ञान से शून्य मूर्ख क्या शास्त्रीय परीक्षा में बैठे हुये विद्यार्थियों की परीक्षा कर सकता है ? कहा भी है श्लोकार्थ-कहीं कुछ निश्चित का आश्रय लेकर अन्यत्र-अनिश्चित अर्थ में विचार–परीक्षा होती है और यदि सभी जगह विसंवाद हो जावे तो कहीं पर भी परीक्षा नहीं हो सकती है। 1 किं च । (ब्या० प्र०) 2 अप्रतिपत्तिविषयीकुर्वन् । 3 पराभ्युपगमात् । 4 विकल्पचतुष्टयविशेष । (ब्या० प्र०) 5 वस्तुमात्रम् । 6 तत्त्वोपप्लववादी। 7 वस्तुमात्रं । (ब्या० प्र०) 8 ज्ञानप्रामाण्ये । (ब्या० प्र०) 9 च न इति पा० । (ब्या० प्र०) 10 तत्स्वरूपं । (ब्या० प्र०) 11 शून्यवादिनः स्वप्रसिद्धेन विनान्यत्र विचारः सन्देहश्च न प्राप्नोतीत्यर्थः। 12 अनिर्णीतेर्थे। 13 शून्यवादिनः स्वप्रसिद्धन विनान्यत्रविचार: संदेहश्च न प्राप्नोति यतः । (ब्या० प्र०) 14 व्याहतमेतदिति इति पा० । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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