SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वोपप्लववाद का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २२५ [ उपप्लववादी कञ्चित् तत्त्वनिर्णयमनाश्रित्य परस्य तत्त्वस्य कथमुपप्लवं करोति संदेहो वा कथं विधते ? ] एतेन तत्त्वोपप्लववादिनः किमदुष्टकारकसन्दोहोत्पाद्यत्वेन बाधकानुत्पत्त्या प्रवृत्तिसामhनान्यथा 'वेत्यादिविकल्पसन्दोहहेतुकप्रश्नानुपपतिः- प्रकाशिता, स्वयमन्यत्रान्यदा 'कथञ्चिदप्रतिपन्नतद्विकल्पस्य पुनः क्वचित्तत्परामशिसंशयप्रत्ययायोगात् । 'क्वचित्कदाचिददुष्टकारकसन्दोहोत्पाद्यत्वादिविशेषप्रतिपत्तौ तु कुतस्तत्त्वोपप्लवसिद्धिः ? 'पराभ्युपगमात्तत्प्रतिपत्तेरदोष इति चेत् स 1०तर्हि पराभ्युपगमो यदि प्रमाणात्प्रतिपन्न: 11स्वयं तदा कथं 12प्रमाणप्रमेयतत्त्वोपप्लवः ? पराभ्युपगमान्तरात्तत्प्रतिपत्तौ तदपि पराभ्युपगमान्तरमन्यस्मात् पराभ्युपगमान्तरात्प्रतिपत्तव्यमित्यनवस्था । अकस्मात् किसी एक चीज को देखकर दूसरे का स्मरण करके संशय कर सकता है सर्वथा अज्ञात वस्तु में या गधे के सींग, आकाश के फूल में क्या संदेह होगा? अतएव ज्ञान की प्रमाणता अभ्यास दशा में स्वतः एवं अनभ्यास दशा में पर से होती है। तथैव ज्ञान की अप्रमाणता भी अभ्यास दशा में स्वतः अनभ्यासदशा में पर से होती है, यह बात सुनिश्चित सिद्ध है। [उपप्लववादी कुछ भी तत्त्व का निर्णय न करके पर के तत्त्वों का उपप्लव या पर के तत्त्व में संदेह कैसे कर सकता है ? ] इस कथन से तत्त्वोपप्लववादी के जो प्रश्न हुए थे "ज्ञान की प्रमाणता अदुष्टकारक समूह से उत्पन्न होती है या बाधक की अनुत्पत्ति से या प्रवृत्ति की सामर्थ्य से अथवा अन्यथा अविसंवादित्वादि प्रकार से होती है ? इत्यादि प्रश्न विकल्पों की व्यवस्था कथमपि शक्य नहीं-यह बात प्रकाशित कर दी गई है। स्वयं अन्यत्र, अन्यकाल में कथंचित् जिसने उन विकल्पों को नहीं जाना है उसको तत्पराशि संशय ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता है। कहीं पर कदाचित् अदुष्ट कारक समूह से उत्पन्न होना आदि विशेष का ज्ञान हो जाता है ऐसा कहो तो आप शून्यवादी के यहाँ तत्त्वोपप्लव की सिद्धि कैसे हो सकेगी? शून्यवादी–पर की स्वीकृति मात्र से उसका ज्ञान मानने से हमें कोई दोष नहीं है। जैन-यदि वह पर की स्वीकृति प्रमाण से स्वयं जानी गई है तो प्रमाण और प्रमेयतत्त्व का उपप्लव कैसे होगा? यदि कहो कि वह पर की स्वीकृति अन्य पर की स्वीकृति से जानी जाती है तब 1 बसः । (ब्या० प्र०) 2 यसः । (ब्या० प्र०) 3 ज्ञाने । (ब्या० प्र०) 4 अनधिगतवस्तुविकल्पस्य पुरुषस्य क्वचित्द्रदेशे वस्तुविचारे संशयो न घटते इति । 5 तत्त्वोपप्लववादिनः। 6 ज्ञाने। (ब्या० प्र०) 7 ज्ञाने । (ब्या० प्र०) 8 विकल्पचतुष्टयं प्रमेयं तद्ग्राहकं च विज्ञानं प्रमाणं । (ब्या० प्र०) 9 तत्त्वोपप्लववादी प्राह। 10 जैनः । 11 तत्त्वोपप्लववादिना। 12 पराभ्युपगमस्य ग्राहकं प्रमाणं । (ब्या० प्र०) 13 पराभ्युपगमात् इति पा० । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy