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अष्टसहस्री
[ कारिका ३प्रसिद्धं न वा ? यदि न 'प्रसिद्ध, कथं सन्देहः- ? 'क्वचिदप्रसिद्धोभय विशेषस्य तत्सामान्य' दर्शनेनैव तत्परामशिप्रत्ययस्य सन्देहस्यासम्भवाद्भूभवनसंवद्धितोत्थितमात्रस्य तादृशः स्थाणुपुरुषविषयसन्देहवत् । यदि "पुनस्तदुभयं प्रसिद्धं "तदा स्वतः परतो वा ? अभ्यासदशायां स्वतोनभ्यासदशायां परत एवेति चेत् सिद्धमकलङ्कशासनं, 12सर्वस्य संवेदनस्य स्यात्स्वतः स्यात्परत:14 प्रामाण्याप्रामाण्ययोर्व्यवस्थानातु, अन्यथा 1°क्वचिद्वयवस्थातुमशक्तेः ।
प्रसिद्ध है अथवा किंचित् उससे विपरीत-असुनिश्चितासंभवबाधक रूप से प्रसिद्ध नहीं है क्या ? यदि प्रसिद्ध नहीं है तो संदेह कैसे होगा ? जिसको किसी वस्तु में उभय-स्थाणु और पुरुष दोनों की विशेषता अप्रसिद्ध है उसे उनके सामान्य को देखने से ही उसको परामर्श करने वाला संदेह ज्ञान असंभव है जैसे भूभवन संवद्धित-तलघर में पलकर बड़ा हुआ पुरुष उससे निकलते मात्र ही उस प्रकार के स्थाणु और पुरुष उभय विषय को देखकर संशय नहीं कर सकता है।
___ यदि आप शून्यवादी कहें कि स्थाणु और पुरुष दोनों ही प्रसिद्ध हैं। तब तो हम आप से पूछते हैं कि वे दोनों स्वतः प्रसिद्ध हैं या पर से? यदि आप कहें कि अभ्यास दशा में स्वतः प्रसिद्ध हैं और अनभ्यास दशा में पर से प्रसिद्ध हैं तब तो अकलंकशासन-निर्दोष शासन सिद्ध हो गया अथवा अकलंक देव का न्याय शासन सिद्ध हो गया। सभी ज्ञान में कथंचित् स्वत: और कथचित् पर से प्रामाण्य और अप्रामाण्य की व्यवस्था मानी गई है । अन्यथा केवल स्वतः अथवा केवल पर से व्यवस्था करना अशक्य है।
भावार्थ-तत्त्वोपप्लववादी का कहना है कि साधारण अल्पज्ञ मनुष्य यह कैसे समझेंगे कि यह ज्ञान निश्चित रूप से बाधा रहित है। तब जैनाचार्यों ने कहा कि भाई अल्पज्ञजन इस बात को भी कैसे जानेंगे कि सभी का ज्ञान बाधा से रहित है यह बात अनिश्चित है। बस ! उपप्लववादी को मौका मिला उसने कहा इसलिये ज्ञान में सर्वत्र संदेह देखा जाने से ही हम ज्ञान तत्त्व का प्रलय कह रहे हैं। तब आचार्य ने कहा कि सभी को सर्वत्र ज्ञान में संदेह ही है यह बात भी अल्पज्ञ कैसे जान सकते हैं ? फिर दूसरी बात यह है कि जिस विषय में जिसको संदेह होता है उस विषय का पहले कभी उसे निश्चय अवश्य ही होना चाहिए था जैसे पहले जिसने ठूठ और मनुष्य को देखा है वही
1 तर्हि । (ब्या०प्र०) 2 संदेहानुपपत्ति दर्शयति । (ब्या० प्र०) 3 ज्ञाने। (ब्या० प्र०) 4 क्वचिद्वस्तुनि । अज्ञातस्थाणुपुरुषत्वादेः। 5 बसः । (ब्या० प्र०) 6 नुः । (ब्या० प्र०) 7 तत्सामान्यादशिन इव इति पाठान्तरम् । सामान्यादशिनो विशेषोपलम्भे सति सन्देहस्यानुपपत्तिर्य था तथा प्रकृतेपि । अथात्र दृष्टान्तोऽप्रसिद्ध इति न मन्तव्यं, भूभवनेत्यादिलोकिकोदाहरणप्रदर्शनात् । 8 तादृशो नरस्य यथा तत्र सन्देहो नोदेति। 9 तत्त्वोपप्लववादी। 10 स्थाणपुरुषत्वे। 11 जैन। 12 अकलंकशासनसिद्धि प्रदर्शयति । (ब्या० प्र०) 13 कथञ्चिविवक्षितप्रकारेणाभ्यासदशापेक्षयेत्यर्थः। 14 अनभ्यासावस्थापेक्षया । (ब्या० प्र०) 15 केवलं स्वत एव परत एव वेति स्वीकारे । 16 ज्ञाने । (ब्या० प्र०)
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