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तत्त्वोपप्लववाद का खंडन ]
प्रथम परिच्छेद
[ तत्त्वोपप्लववादी संशयं कृत्वा प्रमाणस्य प्रलयं कर्तुमिच्छति तस्य निराकरणं ]
तत एव संशयोस्त्विति चेत् सोपि तथाभावेतरविषयः सर्वस्य सर्वदा सर्वत्रेति 1 कथमसर्घज्ञः' शक्तोवबोधुम् ? स्वसंवेदने ' तथावबोधात्सर्वत्र' तथावबोध इति चेत् तनुमानमायातं, विवादाध्यासितं संवेदनं सुनिश्चितासंभवद्द्बाधकत्वेतराभ्यां सन्दिग्धं, संवेदनत्वादस्मत्संवेदनवदिति । तच्च "यदि सुनिश्चितासंभवद्बाधकं सिद्धं तदा तेनैव साधनस्य व्यभिचारः । अथ न तथा सिद्ध, 2 कथं साध्यसिद्धिनिबन्धनम् ? अतिप्रसङ्गात् । स्वसंवेदनं च प्रतिपत्तुः किञ्चित् क्वचित् कदाचित् सुनिश्चितासम्भवद्बाधकं किञ्चित्तद्विपरीतं
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सर्वथा क्षणिक में असंभव है ।
शून्यवादी -- असर्वज्ञ मनुष्य ज्ञान के इस सुनिश्चितासंभव बाधकत्व को जानने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ?
जैन - यदि आप ऐसा कहो तो, सभी जगह सर्वदा सभी जीवों का सभी ज्ञान सुनिश्चितासंभवद्बाधक नहीं है इस बात को भी असर्वज्ञ - अल्पज्ञ कैसे जान सकेंगे ?
[ तत्त्वोपप्लववादी संशय को करके प्रमाण का प्रलय करना चाहता है उसका निराकरण ] शून्यवादी - इसीलिये दोनों में संशय होने से दोनों के ही पक्ष असिद्ध हैं ।
जैन - तथाभाव - बाधा से रहित और अतथाभाव - बाधा से सहित को विषय करने वाला संशय सभी जीव को, सर्व काल में सर्वत्र है इस बात को भी अल्पज्ञ कैसे जान सकेगा ?
शून्यवादी - स्वसंवेदन में सुनिश्चितासंभवद्बाधकत्व और असुनिश्चितासंभवद्बाधकत्व के द्वारा संदिग्ध प्रकार से सर्वत्र वैसा ही ज्ञान होता है ।
जैन - तब तो अनुमान ही आ गया । "विवाद की कोटि में आया हुआ संवेदन सुनिश्चितासंभवद्बाधकत्व और इतर के द्वारा संदिग्ध है क्योंकि संवेदन है जैसे हम अल्पज्ञ लोगों का संवेदन ।" और वह यदि सुनिश्चितासंभवद्बाधकत्व सिद्ध है तब तो उसी से ही हेतु व्यभिचरित हो जाता है । यदि वैसा नहीं है अर्थात् सुनिश्चितासंभवद्बाधक सिद्ध नहीं है तब तो साध्य की सिद्धि में कारण ही हो जाता है, अन्यथा अतिप्रसंग आ जाता है ।
और प्रतिपत्ता का कोई स्वसंवेदन ज्ञान क्वचित् कदाचित् सुनिश्चितासंभवदुबाधक रूप से
1 ( तत्त्वोपप्लववादी) उभयपक्षासिद्धेः । 2 जैन आह । 3 ज्ञानस्य । (ब्या० प्र०) 4 विषये । (ब्या० प्र० ) 5 तत्त्वोपप्लववाद्यादिः । 6 सुनिश्चितासम्भवदबाधकत्वेतराभ्यां सन्दिग्धत्वप्रकारेण । 7 ज्ञाने । (ब्या० प्र० ) 8 जैन: प्राह । 9 जैनः | 10 संवेदनसाधनं सिद्धमसिद्धं वा ? यदि सिद्धं तदा तेनैव सन्दिग्धं न साध्यते अतः साधनस्य व्यभिचारः । अथ न सिद्धं तदा स्वयमसिद्धं साधनकारणम् । यद्यसिद्धमपि साधनं साध्यं साधयति तदातिप्रसङ्ग इति भावः । 11 असुनिश्चितासम्भवद्द्बाधकं चेदित्यर्थः । 12 तर्हति शेषः । 13 संवेदनम् । 14 असुनिश्चिता
संभवबाधकम् ।
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