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________________ २२२ ] अष्टसहस्त्री [ कारिका ३ पपत्तेः । 'स्वार्थव्यवसायावरणोदये' वाऽसंवेदने सकृत्संवेदने वा संवेदनपौनःपुन्येपि वानभ्यासघटनात् । पूर्वापरं ' स्वभावत्या गोपादाना' न्वितस्वभावस्थितिलक्षणत्वेनात्मन: ' परिणामिनोभ्यासानभ्यासाविरोधात् । सर्वथा क्षणिकस्य नित्यस्य वा प्रतिपत्तुस्तदनुपपत्तेरभीष्टत्वात् । नन्विदं सुनिश्चितासम्भवाधकत्वं संवेदनस्य कथमसर्वज्ञो ज्ञातुं समर्थ इति चेत् "सर्वत्र सर्वदा सर्वस्य सर्वं संवेदनमसुनिश्चितासम्भवद्बाधकमित्यप्यसकलज्ञः कथं जानीयात् ? उदय विशेषरूप से देखा जाता है अतः वे ज्ञान शून्य के सदृश मालूम पड़ते हैं, तथैव किसी को एक बार ज्ञान होना मतलब अवग्रह, ईहा, अवाय तक ज्ञान हो गया, धारणा नहीं बनी या बार-बार ज्ञान होने पर भी धारणा नहीं बनने से संस्कार दृढ़ नहीं हो सकते हैं इसी का नाम अनभ्यास है । तथा हम आत्मा को सर्वथा नित्य नहीं मानते हैं अत: एक ही आत्मा में अभ्यास और अनभ्यास दोनों ही संभव हैं। पूर्व स्वभाव का त्याग और अपर स्वभाव का उपादान उन दोनों में अन्वितस्वभाव की स्थिति इन तीन लक्षणों से नित्यानित्य रूप परिणमन शील आत्मा में अभ्यास और अनभ्यास विरुद्ध नहीं हैं-अविरोध रूप से सिद्ध हैं । सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा क्षणिक रूप आत्म में वे अभ्यास, अनभ्यास दोनों ही असंभव हैं ऐसा हमें अभीष्ट ही है क्योंकि सर्वथा नित्य या क्षणिक में अनभ्यासात्मक ज्ञान का परिहार करके अभ्यासात्मक ज्ञान को प्राप्त करने में विरोध ही है । भावार्थ - तत्त्वोपप्लववादी ने आस्तिक्य वादियों के प्रमाणतत्त्व की परीक्षा करने के लिये चार प्रश्न रखे थे कि प्रमाण की प्रमाणता कैसे है निर्दोष कारणों से जन्य होने ? इत्यादि । इन प्रश्नों को उठाकर उसने स्वयं सभी को दूषित कर दिया तब जैनाचार्य कहते हैं कि यदि हम इन कारणों से प्रमाण की प्रमाणता मानें तो ये उपर्युक्त दोष आवेंगे किंतु हम तो प्रमाण की प्रमाणता में अन्य ही कारण मानते हैं । वह अन्य कारण क्या है ? तब आचार्य ने कहा कि "जिसमें बाधा का न होना सुनिश्चित है ऐसे “सुनिश्चितासंभवद्बाधकत्व" से हम प्रमाण की प्रमाणता मानते हैं एवं प्रमाण का लक्षण विद्यानंद स्वामी ने "स्वार्थव्यवसायात्मक" किया है, जिसका अर्थ है स्व और अर्थ को निश्चय कराने वाला ज्ञान ही प्रमाण है । आचार्य अभ्यस्त परिचित दशा में ज्ञान की प्रमाणता स्वतः मानते हैं एवं अनभ्यस्त - अपरिचित दशा में पर से मानते हैं । आत्मा को सर्वथा क्षणिक मानने पर अभ्यास और अनभ्यास बन नहीं सकते हैं, एवं सर्वथा नित्य मान्यता में भी अभ्यास, अनभ्यास असंभव है क्योंकि एक अवस्था का त्याग करके दूसरी अवस्था को ग्रहण करना सर्वथा नित्य अथवा 1 पूर्वस्यैव हेत्वन्तरम् । 2 व्यवसायो ज्ञानं, तस्य । 3 ननु भो जैन नित्यस्यात्मनोभ्यासानभ्यासौ कथं स्यातामित्युक्ते जैनः प्राह । 4 पूर्वापरस्वभाव इति पा । ( ब्या० प्र० ) 5 ईप् द्विः । ( ब्या० प्र० ) 6 बस: । ( ब्या० प्र० ) 7. नित्यानित्यरूपस्य । 8 आत्मन: । 9 जैनस्य (अनभ्यासात्मकज्ञान परिहारेणाभ्यासात्मकज्ञानप्राप्तिविरोधात् क्षणिकस्य नित्यस्य वा ) 10 तत्त्वोपप्लववादी । 11 जनः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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