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________________ तत्त्वोपप्लववाद का खंडन ] प्रथम परिच्छेद [ २१६ कुतः प्रमेयतत्त्वव्यवस्थेति विचारात्तत्त्वोपप्लवव्यवस्थितिः । [ अधुना जैनाचार्याः तत्त्वोपप्लववादं निरस्य स्वमतेन प्रमाणस्य प्रमाणतां साधयंति ] इत्येतदपि सर्वमसारं, तत्त्वोपप्लवस्यापि विचार्यमाणस्यैवमव्यवस्थितेरनुपप्लुत तत्त्वसिद्धिनिराकरणायोगात् । अथ “तत्त्वोपप्लवः सर्वथा न विचार्यः, तस्योपप्लुतत्वादेव' 'विचारासहत्वादन्यथानुपप्लुततत्त्वसिद्धिप्रसङ्गात् । केवलं तत्त्ववादिभिरभ्युपगतस्य प्रमाण करते हुए पाठ याद करते हैं, मल्ल व्यायाम का अभ्यास करते हैं । इसी प्रकार आपके प्रत्यक्षज्ञान का अभ्यास क्या है ? यदि पुनः पुनः प्रत्यक्ष रूप अनुभव की उत्पत्ति हो जाना तो क्षणिकत्व आदि में यह निर्विकल्पज्ञान प्रमाणीक हो जावेगा क्योंकि संपूर्ण अर्थों में तदात्मक हो रहे उस क्षणिक रूप विषय में निर्विकल्पज्ञान सदा होते रहते हैं। स्वलक्षणों से क्षणिकपन अभिन्न है। अतः क्षणिकत्व में तो बहत बढ़िया अभ्यास सिद्ध हो रहा है किन्तु आप बौद्धों को तो ऐसा इष्ट नहीं है। अंत में निष्कर्ष यह निकला है कि बौद्ध के यहाँ प्रमाण की प्रमाणता को अविसंवादीपने से स्वीकार करना ठीक नहीं है। बौद्ध लोग प्रमाण की प्रमाणता स्वतः मानते हैं, नैयायिक प्रमाण की प्रमाणता पर से मानते हैं। मीमांसक उत्पत्ति और निश्चय दोनों ही अवस्थाओं में प्रमाणता स्वतः और अप्रमाणता पर से मानते हैं। सांख्य प्रमाणता को पर से और अप्रमाणता को स्वतः मानते हैं । इन विभिन्न मतावलंबियों का आचार्यों ने अन्यत्र प्रमेयरत्नमाला आदि में विशेषरूप से खंडन किया है और इस बात को सिद्ध कर दिया है कि ज्ञान में प्रमाणता की उत्पत्ति तो पर से ही होती है किन्तु प्रमाण में प्रमाणता का निश्चय तो अभ्यास दशा में स्वतः होता है एवं अनभ्यास दशा में पर से होता है ऐसा समझना चाहिये। उपर्युक्त प्रकार से चारों प्रश्नों के उत्तर असिद्ध हो जाने पर तो सामान्य से प्रमाण का लक्षण सिद्ध न होने पर विशेष रूप से भी प्रत्यक्ष आदि प्रमाण सिद्ध नहीं हो सकते हैं अतः विचार करने पर प्रमाण तत्त्व की व्यवस्था करना कथमपि शक्य नहीं है और प्रमाण तत्त्व की व्यवस्था न होने पर प्रमेय तत्त्व की व्यवस्था भी कैसे हो सकेगी क्योंकि प्रमाण के अभाव में प्रमेय कहाँ रहेगा? इसलिये विचार करने पर तो सभी तत्त्वों का उपप्लव-प्रलय ही हो जाता है इस प्रकार से तत्त्वोपप्लववादी ने अपना पूर्वकपक्ष रखा है अब आचार्य उसका खंडन करते हैं। [ अब जैनाचार्य तत्त्वोपप्लववाद का खंडन करके अपने मत में मान्य ज्ञान की प्रमाणता को सिद्ध करते हैं ] जैन-आप शून्यवादी का यह सभी कथन असार (शून्यवत्) ही है। आपका तत्त्वोपप्लववाद भी विचार करने पर व्यवस्थित नहीं हो सकता है इसलिये आप अनुपप्लुत अबाधिततत्त्व की सिद्धि का निराकरण नहीं कर सकते हैं। 1 जैनो वक्ति। 2 वक्ष्यमाणप्रकारेण । 3 उपप्लुतो बाधितः। 4 तत्त्वोपप्लववादिनः। 5 परः। 6 शून्यवादः । 7 अभावरूपत्वादेव । 8 तत्त्वोपप्लवलक्षणं । तत्त्वशब्दस्यैव प्रतिपदमिदं न तु अनुपप्लुतशब्दस्य । (ब्या० प्र०) 9 भो जैन। 10 तवापि विचारासहत्वे तत्त्वोपप्लवसिद्धिः कथमिति जैनेनोक्ते स आह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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