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२१८ ] अष्टसहस्री
[ कारिका ३बौद्ध की इस मान्यता में असंभव दोष आता है क्योंकि बौद्धों ने प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही प्रमाण माने हैं उनके यहाँ न्यायबिंदु में कहा है “द्विविधं सम्यग्ज्ञानं, प्रत्यक्षमनुमानञ्च" [ न्याय बिन्दु पृ० १० ] उसमें प्रत्यक्ष में तो अविसंवादीपना संभव नहीं है क्योंकि वह निर्विकल्प होने से अपने विषय का निश्चायक नहीं है अतः संशयादि रूप समापरो का निराकरण नहीं कर सकता है और न उनके मान्य अनुमान में अविसंवादीपना संभव है। उनके मतानुसार वह अनुमान भी अवास्तविक सामान्य को विषय करने वाला है इस तरह से बौद्धों के प्रमाण का लक्षण असंभव दोष से दूषित होने से सम्यक् लक्षण नहीं है।
यहाँ तत्त्वोपप्लववादी यह प्रश्न कर सकता है कि जो अर्थक्रिया रूप अविसंवाद ज्ञान की प्रमाणता में कारण है वह अविसंवाद तुम्हें ज्ञात है या नहीं ? यदि वह अविसंवाद अज्ञात रूप है तब तो वह ज्ञान की प्रमाणता को कैसे बतलायेगा ? यदि कहो वह ज्ञात रूप है तो भी उस जाने गये अविसंवाद ज्ञान की प्रमाणता किससे है ? यदि भिन्न संवादक ज्ञान से कहो तब तो अनवस्था आ जाती है। बौद्ध कहता है कि अर्थक्रियारूप जलज्ञान में स्नान, अवगाहन आदि का जो ज्ञान है वह अविसंवाद ज्ञान है और अभ्यास दशा में इसकी प्रमाणता स्वतः सिद्ध है तब तो प्रश्न यह हो जाता है कि अभ्यास का लक्षण आप बौद्ध क्या करते हैं ? यदि कहो कि ज्ञान में पुनः पुनः संवाद का अनुभव होना अभ्यास है तो इस मान्यता में भी अनेकों दोष आ जाते हैं क्योंकि प्रश्न ये होंगे कि वह पुनः पुनः अनुभव ज्ञान सामान्यज्ञान में हो रहा है या स्वलक्षणभूत एक क्षणवर्ती विशेष में ?
प्रथम पक्ष में तो आपके द्वारा मान्य सामान्य अवास्तविक है उसमें पुनः पुनः अनुभव मानना अवास्तविक ही होगा। यदि द्वितीय पक्ष लेवो तो भी एकक्षणवर्ती पर्याय के ज्ञान में बार-बार क्या अनुभव आयेगा ? यदि आवेगा तो वह ज्ञान स्थिर-नित्य हो जावेगा क्षणिक नहीं रहेगा । श्लोकवातिक में भी इसका खंडन किया है। "निश्चय करने की शक्ति को उत्पन्न न करते हुए ही अर्थ का अनुभव प्रमाण है क्योंकि निर्विकल्प ज्ञान में अभ्यास की पटुता है" इस प्रकार से बौद्ध के कहने पर आचार्य कहते हैं कि इस मान्यता से तुम्हारी "यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता" इस नियम में विरोध आता है । अर्थात् निर्विकल्पज्ञान जिस विषय में इस निश्चय रूप सविकल्प बुद्धि को उत्पन्न करा देगा उस ही विषय में यह निर्विकल्प ज्ञान प्रमाणीक हो जावेगा । जैसे कि घट का प्रत्यक्ष हो जाने पर पीछे से उसके रूप, स्पर्श आदि में निश्चय ज्ञान उत्पन्न हो गया है अतः रूप और स्पर्श को जानने में निर्विकल्पज्ञान प्रमाण माना गया है किन्तु प्रत्यक्ष के द्वारा वस्तुभूत क्षणिकत्व को जान लेने पर भी पीछे से क्षणिकपने का निश्चय नहीं हुआ है अतः क्षणिक को जानने में प्रत्यक्ष की प्रमाणता नहीं है और यदि निश्चय को उत्पन्न नहीं करने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान भी प्रमाण मान लिया जावे तो “यत्रैव जनयेदेना" इस ग्रंथ से विरोध आ जावेगा। "कश्चायमभ्यासो नाम ? पुनः पुनरनुभवस्य भाव इति चेत् क्षणक्षयादी तत्प्रमाणत्वापत्तिस्तत्र सर्वदा सर्वार्थेषु दर्शनस्य भावात् परमाभ्याससिद्धेः" । हम बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि आपके द्वारा मान्य अभ्यास क्या चीज है ? विद्यार्थी कई बार बोल-बोल कर घोषणा
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