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________________ तत्त्वोपप्लववाद ] प्रथम परिच्छेद [ २१७ 'संतानापेक्षया संभवतीति चेन्न, संतानस्यावस्तुत्वादपेक्षानुपपत्तेः । वस्तुत्वे वा तस्यापि क्षणिकत्वसिद्धेः कुतस्तदपेक्षया सोभ्यासः ? सन्तानस्याक्षणिकत्वे वा यत्सत्तत्सर्वं क्षणिकमिति न सिद्धयत् । 'तज्जातीये भूयः संवादानुभवनमिति 'चेन्न, जातिनिराकरणवादिनः' क्वचित्तज्जातीयत्वानुपपत्तेः । अन्यापोहलक्षणया जात्या क्वचित्तज्जातीयत्वमुपपन्नमेवेति चेन्न, अन्यापोहस्यावस्तुरूपत्वात्, तस्य वस्तुरूपत्वे वा *जातित्वविरोधात स्वलक्षणस्यासाधारणस्य वस्तुत्वोपगमात् । तदेवं7 सामान्यतः प्रमाणलक्षणानुपपत्तौ विशेषेणापि प्रत्यक्षादिप्रमाणानुपपत्तेर्न प्रमाणतत्त्वं विचार्यमाणं व्यवतिष्ठते । तदव्यवस्थितौ उसकी (काल्पनिक की) अपेक्षा ठीक नहीं है अथवा उस सन्तान को वास्तविक मान भी लेवें तो वह संतान भी क्षणिक रूप ही सिद्ध हो जावेगी। पुनः उस सन्तान की अपेक्षा से यह अभ्यास कैसे हो सकेगा अथवा यदि आप संतान को नित्य मान लेवें तो "यत् सत्तत् सर्वं क्षणिक" यह प्रतिज्ञा वाक्य कैसे सिद्ध होगा ? बौद्ध-तज्जातीयज्ञान में पुनः पुनः सत्यरूप संवाद का अनुभव होता है। शुन्यवादी-ऐसा नहीं कहना । आप जातिसामान्य का निराकरण करने वाले हैं अर्थात् अन्वय रूप द्रव्य का निषेध करने वाले हैं अतः आपके यहाँ कहीं पर भी अन्वय रूप से जातीय-सामान्य सिद्ध नहीं हो सकता है। बौद्ध-अन्यापोह लक्षण जाति से किसी स्थिर, स्थूल आदि वस्तु में जातीयत्व बन ही जाता है। शून्यवादी-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि अन्यापोह तो अवस्तु है अथवा उसको वस्तु रूप मान लेने पर जाति का विरोध हो जावेगा क्योंकि आपने असाधारण—विशेषरूप स्वलक्षण को ही वस्तु रूप माना है। भावार्थ-बौद्ध के यहाँ प्रमाण का लक्षण है "अविसंवादिज्ञानं प्रमाणं" उसी प्रकार से बौद्ध ने ज्ञान की प्रमाणता को अविसंवादी होने से सिद्ध किया है और अविसंवाद का अर्थ है अर्थक्रिया का सद्भाव । जैसे जल की अर्थक्रिया स्नानपानादि है । न्यायदीपिका में भी बौद्धों के द्वारा प्रमाण ज्ञान को अविसंवादी मानने में दोषारोपण किया गया है यथा “जो ज्ञान विसंवाद रहित है वह प्रमाण है" 1 बौद्धः। 2 अपरामृष्टभेदानां पूर्वोत्तरक्षणानां मेलनं संतानः । (ब्या० प्र०) 3 हे बौद्ध । 4 संतानेनानकांतिकत्वमिति भावः । (ब्या० प्र०) 5 बौद्धः । संवेदने । 6 सत्यरूपस्य संवादस्य । 7 तत्त्वोपप्लववादी। 8 सामान्यनिर:करणवादिनः। 9 अन्वयरूपद्रव्यनिषेधवादिनस्तव सौगतस्य क्वचिद्वस्तुनि अन्वयरूपता नोपपद्यते । 10 घटत्वपटत्वादिरुपेण । 11 बौद्धः। 12 स्थिरस्थूलवस्तुनि । 13 तत्त्वोपप्लववादी। 14 (जातिविरोधादिति पाठान्तरम्)। 15 विशेषस्य । 16 तव सौगतस्य मते । 17 पूर्वोक्तविकल्पचतुष्टयप्रकारेण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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