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________________ २२० ]. अष्टसहस्री . [ कारिका ३प्रमेयतत्त्वस्य विचाराक्षमत्त्वात्तत्त्वोपप्लवसिद्धिः' इति मतं तदपि फल्गुप्रायं, यथातत्त्वमविचारितत्वात्। न ह्यदुष्टकारकसन्दोहोत्पाद्यत्वेन' संवेदनस्य प्रमाणत्वं स्याद्वादिभिर्व्यवस्थाप्यते, 'बाधारहितत्वमात्रेण वा । नापि प्रवृत्तिसामर्थ्यनान्यथा' वा, प्रतिपादितदोषोपनिपातात् । किं तर्हि ? सुनिश्चितासम्भवबाधकत्वेन । 10न चेदं स्वार्थव्यवसायात्मनो ज्ञानस्य "दुरवबोधम् ।। [ प्रमाणस्य प्रामाण्यमभ्यस्तविषये स्वतोऽनभ्यस्तविषये परतः इति मन्यमानेऽनवस्था परस्पराश्रयो वा न संभवति ] ____ सकलदेशकालपुरुषापेक्षया सुष्ठु निश्चितमसम्भवबाधकत्वं हि प्रमाणस्याभ्यस्तविषये शून्यवादी-हमारा तत्त्वोपप्लव सर्वथा विचार करने योग्य नहीं है क्योंकि उपप्लुत-बाधित -अभावरूप होने से ही परीक्षा को सहन करने में असमर्थ है अन्यथा अनुपप्लुत-सद्भाव रूप तत्त्व की सिद्धि का प्रसंग आ जावेगा। केवल तत्त्ववादी-आप जैनों के द्वारा स्वीकृत प्रमाण और प्रमेयतत्त्व विचार-परीक्षा को सहन नहीं कर सकता है अतः हमारे द्वारा मान्य तत्त्वोपप्लववाद ही सिद्ध होता है। जैन-आप शून्यवादी का यह कथन फल्गुप्राय–व्यर्थ ही है क्योंकि यथातत्त्व-तत्त्व के अनुरूप आपने परीक्षा नहीं की है। हम स्याद्वादी जन ज्ञान की प्रमाणता का विचार उपर्युक्त चार विकल्पों से नहीं मानते हैं । अर्थात् अदुष्ट कारक संदोह से उत्पन्न होने से, बाधा रहित मात्र से, प्रवृत्ति की सामर्थ्य से अथवा अविसंवादित्वादि प्रकार से हम जैन ज्ञान की प्रमाणता नहीं मानते हैं । अतः आपके द्वारा प्रतिपादित दोषों के प्रसंग हमारे यहाँ नहीं आते हैं । शून्यवादी-तो फिर आप जैन किस तरह से ज्ञान की प्रमाणता सिद्ध करते हैं। जैन-हम जैन सुनिश्चितासंभवद्बाधक रूप से प्रमाण की प्रमाणता व्यवस्थापित करते हैं क्योंकि स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान को इस प्रमाण से जानना कठिन नहीं है। [ प्रमाण की प्रमाणता अभ्यस्त दशा में स्वतः एवं अनभ्यस्त दशा में पर से है ऐसी मान्यता में अनवस्था अथवा परस्पराश्रय दोष नहीं आता है। कारण कि संपर्ण देश काल के परुषों की अपेक्षा से प्रमाण का "सष्ठ निश्चितमसंभवदबाधकत्व" अभ्यस्त विषय में स्वतः ही निश्चित किया जाता है। जैसे स्वरूप का निश्चय स्वतः ही होता है और अनभ्यस्त विषय में पर से प्रमाणता आती है इस प्रकार से अनवस्था और इतरेतराश्य दोष का प्रसंग नहीं आता है क्योंकि स्वार्थव्यवसायात्मकत्व ही सुनिश्चितासंभवद्बाधकत्व है अर्थात् व्य 1 आह जैनः। 2 तत्त्वमनतिक्रम्येत्युक्ते किं तत्त्वमुल्लङ्घय विचारितमित्यर्थः । 3 अविचारितत्वमग्रे दर्शयति । 4 मीमांसकाभ्युपगतेन । (ब्या० प्र०) 5 न बाधा इति पा० । (ब्या० प्र०) 6 नैयायिकाभ्युपगतेन । (न्या० प्र०) 7 अविसंवादित्वादिना। 8 अविसंवादित्वेन वा किमिति न प्रतिपादितं प्रमाणनिर्णये प्रतिपादितत्त्वात् । अन्यथा वा कथनं । (ब्या०प्र०)9 प्रामाणस्य प्रमाण्यं स्याद्वादिभिर्व्यवस्थाप्यते इति शेषः । 10 जैनः पराभिप्राय निराकरोति । 11 किन्तु सुघटमेवेत्यर्थः । 12 ईप् । (ब्या• प्र०) 13 वर्तमान । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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