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________________ तत्वोपप्लववाद ] प्रथम परिच्छेद [ द्वितीयस्य बाधारहितत्वहेतोः खंडनं ] 'मिथ्याज्ञानेपि नापि बाधानुत्पत्त्या, स्वकारणवैकल्या'द्बाधकस्यानुत्पत्तिसंभवात् ' वर्ती पर्याय का नाश हो जाता है और उत्तरकाल में नवीन पर्याय की उत्पत्ति हो जाती है । इस प्रकार से संबंध विशिष्ट और परिणाम सहित होने से भी केवलज्ञानी ज्ञाता रूप से एक है यही ध्रुवता है एवं परिणमनशील ज्ञेय द्रव्यों के परिणमन से भी ज्ञान परिणामी होता है अतः अपूर्वार्थग्राही सिद्ध है । [ २०३ एवं आचार्य श्री माणिक्यनंदी ने "परीक्षामुख सूत्र" में कहा है कि 'अपूर्वार्थ' विशेषण भी निष्फल नहीं है क्योंकि धारावाहिक ज्ञानों से अज्ञान की निवृत्ति नहीं हो पाती है अतः धारावाहिक ज्ञान की व्यावृत्ति करना ही उसका फल है । यों तो वह विशेषण केवल स्वरूप के निरूपण करने में तत्पर है फिर भी परस्पर विरोध दोष नहीं है । 1 यहाँ पर "निर्दोष कारणजन्यत्व" का निराकरण करते हैं । यदि ज्ञान के उत्पादक कारणों की निर्दोषता अन्य ज्ञान से जानी जाती है तब तो उस अन्य ज्ञान की निर्दोषता भी अन्य ज्ञान से जानी जावेगी पुनः यही धारा असंख्य ज्ञानों तक चलते-चलते बहुत बड़ी अनवस्था आकाश पर्यंत फैल जावेगी। यदि आप मीमांसक प्रथम ज्ञान के उत्पादक कारणों की निर्दोषता द्वितीय ज्ञान से जानेंगे और द्वितीय ज्ञान की निर्दोषता प्रथम ज्ञान से जानेंगे तब तो अन्योन्याश्रय दोष तैयार खड़ा है । अत: ज्ञान के उत्पादक चक्षु आदि इंद्रियों की निर्दोषता - निर्मलता आदि को न कोई प्रत्यक्ष ( इंद्रिय प्रत्यक्ष ) से जान सकते हैं न अनुमान ज्ञान से । दूसरी बात यह है कि अनेक भ्रांत ज्ञानों को उत्पन्न करने वाले कारणों को भी लोग निर्दोष समझ बैठे हैं । इसीलिये अनुमान से भी इस प्रकार संपूर्ण ज्ञानों की निर्दोषकारणों से उत्पत्ति होना नहीं जान सकते हैं क्योंकि उस अनुमान की भी निर्दोष कारणों से उत्पत्ति हुई है इस बात को भी जाना कठिन है । व्याप्ति ज्ञान की निर्दोषता का ज्ञान तो और भी कठिन है । चक्षु आदिक अतींद्रिय इंद्रियों की निर्दोषता जानना कठिन है। बाहर से किसी की निर्दोष चक्षु भी सदोष सदृश दीखती है और दूषित भी चक्षु निर्दोष सदृश दिख जाती है । बौद्धादि भिन्न २ दार्शनिक सत्त्व हेतु से पदार्थों को क्षणिक, नित्य आदि सिद्ध करते हैं और जैनाचार्य इसी सत्त्व हेतु से सभी पदार्थों को "नित्यानित्य" सिद्ध कर देते हैं क्योंकि जैनों ने सत् का लक्षण उत्पाद, व्यय, धौव्य माना है । तथा कामधेनु के समान इच्छित अर्थ को कहने वाले वेदवाक्यों से ब्रह्मवादी अद्वैत को, कर्मकांडी क्रियाकांड को, हिंसा पोषकजन यज्ञ को आदि २ रूप से अनेक विद्वानों ने अपने २ मत पुष्ट कर लिये हैं । ये सभी अपने २ आगम ज्ञान के कारणों को निर्दोष मान बैठे हैं । अतः प्रत्यक्ष अनुमान, आगम ज्ञान के कारणों की निर्दोषता को समझना कठिन समस्या है । Jain Education International 1 मरीचिकायां जलज्ञाने । 2 तद्देशोपसर्पणं स्वकारणं बाधककारणमित्यर्थः । 3 बाधस्य इति पा० । (ब्या० प्र० ) 4 नेदं जलमिति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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