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________________ २०२ ] अष्टसहस्री - [ कारिका ३ सभी प्रयोजन सिद्ध होजाते हैं । अन्य-सर्वथा अपूर्व अर्थ का ग्राहक होना, बाधा से रहित होना, लोक सम्मत होना, निर्दोषकारणों से जन्य होना इत्यादि विशेषण व्यर्थ ही हैं। जो ज्ञान गृहीत अथवा अगृहीत भी अपना और अर्थ का यदि निश्चय करता है तो वह ज्ञान लोक में और शास्त्रों में भी प्रमाणपने को नहीं छोड़ता है। __ यहाँ इस बात को विशेष रूप से ध्यान में रखना चाहिये कि आचार्य विद्यानंद महोदय "अपूर्वार्थ" विशेषण को महत्त्व न देकर केवल 'स्वार्थ' विशेषण को ही महत्त्व दे रहे हैं, फिर भी स्वयं आचार्य ने इसी ग्रंथ में स्थान-स्थान पर केवलज्ञान को भी अपूर्वार्थग्राही सिद्ध कर दिया है । किसी ने कहा कि केवलज्ञान गृहीतग्राही होने से अप्रमाण है तब आचार्य ने कहा कि नहीं सभी ज्ञान सुनयों की अपेक्षा से अपूर्वार्थग्राही हैं और भी देखिये "तत्रापि केवलज्ञानं नाप्रमाणं प्रसज्यते । साद्यपर्यवसानस्य तस्यापूर्थितास्थितेः ।।६०॥ प्रादुर्भतिक्षणादूर्ध्व परिणामित्वविच्युतिः । केवलस्यैकरूपित्वादिति चोद्यं न युक्तिमत् ।।६१॥ परापरेण कालेन संबंधात्परिणामि च । संबंधिपरिणामित्वे ज्ञातृत्वे नैकमेव हि ।। अर्थ-अपूर्वार्थ को जानने वाले उन ज्ञानों में केवलज्ञान अप्रमाण नहीं है क्योंकि ज्ञानावरण के पूर्ण क्षय से विवक्षित काल में उत्पन्न हुये सादि और अनंतकाल तक स्थित रहने वाले उस केवलज्ञान को अपूर्वार्थ का ग्राहक होना सिद्ध है। मतलब विशेषणों की अत्यल्प परावृत्ति हो जाने से उनको जानने वाले ज्ञान अपूर्वार्थ ग्राहक हो जाते हैं। थोड़ा विचार तो करो कि संसार में अपूर्व अर्थ कौन समझ जाते हैं ? सभी द्रव्य पूर्वार्थ ही हैं, किंतु फिर भी सौन्दर्य, अधिक धनवत्ता, रूपवत्ता, प्रतिभा, विलक्षण तपश्चर्या, अद्भुत शक्ति, विशेष चमत्कार आदि धर्मों को धारण कर लेने से वे यथार्थ अपूर्वार्थ मान लिये जाते हैं। सूक्ष्म विचार करने पर तो अत्यंत छोटे अंश को भी नवीनता धारण करने पर पदार्थ को अपूर्वार्थता आ जाती है। जितनी जहाँ अपूर्वार्थ संभवती है उस पर संतोष करना चाहिये । अन्यथा, भक्ष्य, अभक्ष्य विचार, पतिव्रतापन, अचौर्य आदिक लोक व्यवहार सभी समाप्त हो जावेगे । कोई कुतर्क कर रहा है कि "केवलज्ञान अपनी उत्पत्ति क्षण के अनन्तर परिणामी नहीं होता है ज्यों का त्यों रहता है क्योंकि त्रिकाल त्रिलोकवर्ती संपूर्ण पदार्थों को एक साथ जानकर पुनः एक रूप ही बना रहता है अतः उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप परिणामित्व लक्षण वहाँ अघटित है पुनः अपूर्वार्थग्राही कैसे रहा ? आचार्य कहते हैं कि यह शंका भी ठीक नहीं है क्योंकि उत्तर-उत्तरवर्ती काल के साथ संबंध हो जाने से उत्पाद और व्ययरूप परिणाम घटित हो जाते हैं । केवलज्ञान की पूर्व समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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