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तत्त्वोपप्लववाद ]
प्रथम परिच्छेद
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सामान्यस्य तदव्यभिचारित्वाभावात्' । ' प्रमाणभूतं विज्ञानं तल्लिङ्गमिति चेत् कुतस्तस्य प्रमाणभूततावसाय: ? ' तददुष्टकारणारब्धत्वादिति चेत् सोयमन्योन्याश्रयः । सिद्धे विज्ञानस्य प्रमाणभूतत्वे निर्दोषकारणारब्धत्वसिद्धिस्तत्सिद्धौ च प्रमाणभूतत्वसिद्धिरिति । किञ्च
तो क्या बचेगा ? सोचिये ! भाई ! यदि आप शून्यवाद को अशून्य न कहकर शून्य कह देंगे तब तो सभी तत्त्व व्यवस्था सच्ची हो जावेगी |
और शून्यवाद को अशून्य कहेंगे तो अनेकांत होकर भी कुछ तत्त्व व्यवस्था बन जाने से सर्वथा शून्यवाद नहीं रहेगा। वैसे ही उपप्लव को उपप्लव रहित मानने से ही आपकी इष्ट सिद्धि होगी अन्यथा उपप्लववाद का प्रलय होकर सभी तत्त्व सच्चे सिद्ध हो जायेंगे ।
देखिये ! यदि झूठ बोलना झूठ सिद्ध हो जावे तो सत्यता का निर्णय हो जाता है । शत्रु का शत्रु अपना मित्र ही सिद्ध होता है । निष्कर्ष यह निकलता है कि इस उपप्लववादी का कर्त्तव्य जैन, मीमांसक आदिकों से प्रश्न करने का नहीं था फिर भी वह कर रहा है क्योंकि "उलटा चोर कोतवाल को डाँटे" इस लोकोक्ति के अनुसार वह धृष्ट है । अच्छा ! अब प्रश्नोत्तर के ढंग को पढ़ते चलिये ।
मीमांसक - विज्ञान उसका कार्य है वही हेतु है । बस ! हेतु से अनुमान बन जावेगा और अनुमान से हम कारणों की निर्दोषता जान लेते हैं ।
तत्वोपप्लववादी- नहीं ! विज्ञान सामान्य उससे अव्यभिचारी नहीं है अर्थात् शुक्तिका में रजत - ज्ञान कार्य लिंग है वह कारण के दोष को सिद्ध करता है अतः व्यभिचारी है क्योंकि जो विज्ञान सामान्य है वह दुष्टता - सदोष ज्ञान में भी पाया जाता है ।
मीमांसक - प्रमाणभूत विज्ञान उसका हेतु है सदोष ज्ञान नहीं ।
तत्त्वोपप्लववादी - वह विज्ञान प्रमाणभूत है यह निश्चय किससे होगा ? यदि कहो निर्दोष कारणों से उत्पन्न होने से यह विज्ञान प्रमाण है ऐसा निश्चय होता है तब तो अन्योन्याश्रयदोष आ जाता है | विज्ञान के प्रमाणभूत सिद्ध हो जाने पर यह निर्दोष कारणों से उत्पन्न हुआ है यह बात सिद्ध होगी और निर्दोष कारणों से उत्पत्ति की सिद्ध होने पर ज्ञान प्रमाणभूत सिद्धि होगा । मतलब एक दूसरे के आश्रित होने से दोनों ही सिद्ध नहीं हो सकेंगे ।
दूसरी बात यह है कि चक्षु आदि कारणों को गुण और दोषों का आश्रय स्वीकार करने पर
1 शुक्तिकायां रजतज्ञानं कार्यलिङ्ग कारणदुष्टतां साधयतीति व्यभिचारो, यतो विज्ञानसामान्यं दुष्टतायामपि वर्त्तते । 2 मीमांसकः । 3 विशेष: । ( व्या० प्र० ) 4 तत्त्वोपप्लववादी । 5 अदुष्टकारकारब्धत्वात् इति पा० । ( व्या० प्र० ) 6 दूषणान्तरं तत्त्वोपप्लववादी (शून्यवादी) प्राह ।
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