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________________ १९८ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३ तीसरा प्रश्न नैयायिकों की मान्यता को लक्ष्य में रखकर किया गया है। एवं चौथा प्रश्न बौद्धों पर लाग हो जाता है। क्रमशः इन सभी पर विचार विमर्श करके उत्तर देने वाले वे लोग स्वयं ही उपस्थित हो जाते हैं। उपप्लववादी सभी की बात को समाप्त कर देता है । तब जैनाचार्य इन चारों प्रश्नों को महत्त्व न देकर अपना पक्ष रख देते हैं । खैर ! यहाँ पर तो आचार्य मुख्य रूप से इसी बात को बता रहे हैं कि आप उपप्लववादो के ये सभी प्रश्न उठाना संशय पूर्वक ही हो सकते हैं क्योंकि संशय के बिना ये प्रश्न उठाना ही असंभव है। जैसे कि यह स्थाणु है या पुरुष ? और जहाँ कहीं भी किसी पदार्थ का आश्रय लेकर किसी को संशय होता है उस पदार्थ में पहले कभी न कभी किसी स्थल पर निर्णय अवश्य ही कर लिया गया है। जिस मनुष्य ने कहीं भी स्थाणु और पुरुष का ठीक-ठीक पूर्व में निश्चय कर लिया है वही मनुष्य कदाचित् सायंकाल के समय दूसरे ठूठ को देखकर उसमें मनुष्य की ऊँचाई आदि के साधारण धर्मों को देखकर और विशेष धर्मों को न देखकर प्रत्युत करके संशय कर लेता है। मतलब यह है कि जिसको कहीं भी कभी संशय होगा उसे किसी का पहले निर्णय अवश्य होना चाहिये और आप शून्यवादी या उपप्लववादी तो कुछ भी प्रमाण आदि का निर्णय ही नहीं मान रहे हैं पुनः यह प्रमाण निर्दोष कारणों से उत्पन्न हुआ है या बाधा रहित है इत्यादि रूप से हम लोगों के प्रति आपको संशय उठाने का भी क्या अधिकार है ? मतलब पूर्व में अपने कुछ तत्त्व या निर्णय को माने बिना आप संशय भी नहीं कर सकते हैं। बस ! इतना ही कहते चलिये कि "प्रमाण नहीं है, प्रमाण नहीं है" इत्यादि । इस प्रकार दूसरे आस्तिकों के इष्ट किये गये प्रमाण, प्रमेय को खंडन करने के लिये बृहस्पति के सूत्र दूसरे मतों के ऊपर कुप्रश्न करने के लिये तत्पर नहीं हो सकते हैं। यहाँ संभवतः बृहस्पति ने चार्वाक दर्शन का पोषण करके पीछे से सर्व तत्त्वों का उपप्लव स्वीकार किया है ऐसा मालूम पड़ता है एवं जब प्रमाण, प्रमेयतत्त्व, प्रश्न करना, संशय करना आदि व्यवस्थायें आपके यहाँ असंभव हैं तब तो यों ही पोल चलती जावेगी, सभी लोग अपने-अपने मतों को पुष्ट करते हुये मनमानी करते रहेंगे। पुनः आप यह भी नहीं कह सकेंगे कि सारा जगत् शून्य रूप है और देखिये ! "शून्योपप्लववादेऽपि नानेकांताद्विना स्थितिः । स्वयं क्वचिदशून्यस्य स्वीकृतेरनुपप्लुते ॥१४७।। शून्यतायां हि शून्यत्वं जातुचिन्नोपगम्यते। तथोपप्लवनं तत्त्वोपप्लवेऽपीतरत्र तत् ।।१४८॥ [ श्लोकवार्तिक 1 अर्थ-शून्यवाद और उपप्लववाद का सिद्ध करना बिना अनेकांत के नहीं हो सकता है क्योंकि स्वयं के शून्यवाद का समर्थन और अशून्यवाद-आस्तिकवाद का खंडन तो आप करेंगे ही करेंगे । बस ! स्वपक्षसाधन और परपक्ष दुषण यही तो अनेकांत है और अनेकांत है क्या ? दूसरी बात और है कि आप अपने शून्य तत्त्व को अशून्य-सच्चा मानेंगे ही नहीं अन्यथा शून्य का शून्य होकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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