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________________ २०० ] अष्टसहस्त्री [ कारिका ३ चक्षुरादिकारणानां गुणदोषाश्रयत्वे तदुपजनितसंवेदने दोषाशङ्कानिवृत्तिर्न स्यात् गुणदोषाश्रयपुरुषवचनजनितवेदनवत् । गुणाश्रयतयैव तन्निश्वये तदुत्थविज्ञाने 'दोषाशङ्कानिवृत्ती पुंसोपि कस्यचिद्गुणाश्रयत्वेनैव निर्णये तद्वचनजनितवेदने दोषाशङ्कानिवृत्तेः किमपौरुषेयशब्दसमर्थनायासेन' ? अथ ' पुरुषस्य गुणाधिकरणत्वमेवाशक्यनिश्चयं परचेतोवृत्तीनां 'दुरन्वयत्वात् तद्वयापारादेः साङ्कर्यदर्शनात्, निर्गुणस्यापि गुणवत इव व्यापारादिसंभवादुपवर्ण्यते तर्हि चक्षुरादीनामप्यतीन्द्रियत्वात्तत्कार्यसाङ्कर्योपलब्धेः कुतो "गुणाश्रयत्वनियमनिश्चयः उससे उत्पन्न होने वाले ज्ञान में दोषों की आशंका निवृत्त नहीं हो सकेगी जैसे गुण और दोष के आश्रित पुरुषों के वचन से उत्पन्न हुये ज्ञान में शंका की निवृत्ति नहीं होती है । अर्थात् किसी पुरुष गुण और दोष दोनों ही हैं पुनः उसके वचन निर्दोष हैं यह बात कैसे बनेगी ? उसके वचनों में दोषों की शंका बनी ही रहेगी । में यदि आप चक्षु आदि में गुणों का ही निश्चय मानोगे तो उससे उत्पन्न हुये विज्ञान में दोष की आशंका निकल जावेगी और तब किसी पुरुष के भी गुणों का आश्रय निश्चित होने पर उससे उत्पन्न होने वाले ज्ञान में दोषों की आशंका नहीं रहेगी पुनः आप मीमांसक को अपौरुषेय शब्द - वेद के समर्थन के प्रयास से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? मीमांसक - पुरुष को गुणों का आधार निश्चित करना अशक्य है पर के मन की प्रवृत्तियों को जानना बहुत ही कठिन है उनके कार्य तथा व्यापारादि में संकर देखा जाता है । निर्गुणी में भी गुणवानों के समान व्यापारादि संभव हैं ऐसा कहा जाता है । अर्थात् पुरुष गुणों का आधार है उसमें गुण ही पाये जाते हैं यह कहना ठीक नहीं है । किसी निर्दोष पुरुष के व्यवहार सदोष पुरुष के समान दिख जाते हैं और किसी सदोष पुरुष के भी व्यवहार निर्दोष पुरुष के समान दिखते हैं पुनः पुरुष को भी गुणी निश्चित करना असंभव ही है । 1 शून्यवादी ( तत्त्वोपप्लववादी ) - तब तो चक्षु आदि भी अतींद्रिय हैं । उनके भी कार्य में संकर दोष उपलब्ध होने से चक्षु आदि इंद्रियों में गुणों के आश्रितत्त्व नियम का निश्चय करना कैसे शक्य होगा ? किसी अपौरुषेय भी ग्रहोपरागादि को शुक्ल वस्त्रादि में पीत ज्ञान का हेतु मानना उपलक्षण है । अपौरुषेय वेद में भी मिथ्या ज्ञानत्व हेतु की संभावना करने पर आप याज्ञिक - मीमांसकों को उससे उत्पन्न होने वाले ज्ञान में प्रमाणता का निश्चय निःशंक रूप से कैसे होगा ? इसलिये निर्दोष कारणों से उत्पन्न होने से किसी प्रमाण को प्रमाणता है यह कहना शक्य नहीं है अर्थात् यदि आप ऐसा कहें कि 1 अङ्गीकृते । 2 भो मीमांसक चक्षुरादीनां गुणाश्रयतयैव । 3 अंगीक्रियमाणायां सत्यां । ( व्या० प्र० ) 4 हेतोः । ( ब्या० प्र० ) 5 मीमांसकस्य । 6 मीमांसकः । 7 दुरधिगमत्वात् । 8 कुतः ? यतः । 9 व्याहारं | ( ब्या० प्र० ) 10 तत्त्वोपप्लववादी । 11 चक्षुरादीनाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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