________________
शून्यवाद |
प्रथम परिच्छेद
[ १६३
सर्वस्य' स्वेष्टतत्त्वविषयं भवेदिति कुतस्तत्त्वोपप्लवः ?
[ परैर्मान्येन प्रमाणेन सर्वस्य तत्त्वस्याभावं करोति तत्त्वोपप्लववादी तस्य निराकरणं ] परस्य सिद्धं प्रमाणं तदभावविषयमिति चेत् तत् परस्य प्रमाणतः सिद्धं प्रमाणपरोक्ष को आगम प्रमाण विषय करता है अतः ये तीनों प्रमाण सर्वज्ञ कहलाते हैं क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण अपने प्रत्यक्षभूत विषय को पूर्णतया जानता है, अनुमान प्रमाण अपने अनुमेय विषय को पूर्णतया विषय करता है एवं आगम प्रमाण अत्यंत परोक्ष श्रुतज्ञान के विषय को पूर्णतया विषय करता है । अपने-अपने विषय में ये पूर्णतया ज्ञान कर लेते हैं अतएव ये तीनों प्रमाण यहाँ सर्वज्ञ कह दिये गये हैं। "सर्व हि प्रत्यक्षमनु मेयमत्यंतपरोक्षं च वस्तु जानन्तीति सर्वज्ञानी प्रमाणान्तराणि प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणविशेषाः"।
आप शून्यवादियों के यहाँ स्वयं ही असिद्ध, प्रत्यक्ष अथवा अनुमान प्रमाण इन तीनों प्रमाणों के अभाव को कैसे व्यवस्थापित करेंगे कि जिससे वे उस अभाव को विषय कर सकें ? अर्थात् नहीं कर सकते हैं । मतलब कोई भी प्रमाण जब अभाव को विषय ही नहीं कर सकता है तब वह प्रमाण तत्त्वों के अभाव को कैसे कर सकेगा?
इस प्रकार से मानने पर सभी प्रमाण सभी जैनादि के अपने-अपने इष्ट तत्त्व को विषय करने वाले हो जावेंगे पुनः तत्त्व का उपप्लव कैसे हो सकेगा?
विशेषार्थ-इस अष्टसहस्री ग्रंथ में आचार्य श्री विद्यानन्द महोदय ने तत्त्वोपप्लववादी का खंडन विशेष रूप में किया है। इसी प्रकार इन्होंने श्री श्लोकवार्तिक ग्रन्थ में भी इसका खंडन किया है। स्थूल रूप से तो शून्यवाद और तत्त्वोपप्लववाद समान ही मालूम पड़ते हैं, किन्तु सूक्ष्मता से विचार करने पर दोनों में कुछ अंतर झलकता है। इसी बात को स्वयं विद्यानन्द स्वामी ने श्लोकवार्तिक में प्रकट किया है । यथा-पदार्थों को सर्वथा नहीं मानना, विचार के पीछे-पीछे सबको शून्य कहते जाना शून्यवाद है और विचार से पहले व्यवहार रूप से सत्य मानकर विचार होने पर प्रमाण, प्रमेय आदि सभी पदार्थों को स्वीकार न करना तत्त्वोपप्लववाद है।
यह तत्त्वोपप्लववादी स्वयं स्वसंवेदन को भी प्रमाण स्वरूप से इष्ट होने का निर्णय नहीं करता है, तत्त्वों का समूल चूल अभाव कहने वाला उपप्लववादी एक तत्त्व को भी इष्ट नहीं करता है। केवल दूसरों के माने हुये तत्त्वों में प्रश्न उठाकर उनके खंडन करने में ही तत्पर रहता है। स्वयं अपनी गांठ का मत कुछ भी नहीं रखता है।
इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि अपने प्रमाण का कुछ भी निर्णय किये बिना दूसरे वादियों के तत्त्वों का खंडन करने के लिये केवल प्रश्नों की भरमार या आक्षेप उठाना भी तो नहीं बन सकेगा। जिसके यहाँ स्वयं कोई भी इष्ट तत्त्व निर्णीत नहीं किया गया है उसको कहीं भी संशय करना नहीं बन सकता है । भू भवन में जन्म लेकर वहीं पाला गया मनुष्य तो ढूंठ या पुरुष का अथवा चांदी या सीप का संशय नहीं कर पाता है। 1 जैनादेः। (ब्या० प्र०) 2 स्वकीयस्वकीयमतानुसारितत्त्वग्राहकम् । (ब्या० प्र०) 3 आह तत्त्वोपप्लववादी। (ब्या० प्र०) 4 जैनः । (ब्या० प्र०) 5 जैनस्य । (ब्या० प्र०)
Jain Education International
Jain Education International
.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org