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________________ १६२ ] अष्टसहस्र [ कारिका ३ 'तथेष्टत्वाददोष इत्येकेषामप्रमाणिकै वेष्टिः । एके हि तत्त्वोपप्लववादिनः सर्वं प्रत्यक्षादिप्रमाणतत्त्वं प्रमेयतत्त्वं चोपप्लुतमेवेच्छन्ति । तेषां प्रमाणरहितैव तथेष्टि: 1 सर्वमनुपप्लुतमेवेतीष्टेर्न विशिष्यते' । न' खलु प्रत्यक्षं सर्वज्ञप्रमाणान्तराभावविषयम्, अतिप्रसंगात् । नानुमानम्, असिद्धेः । सर्वं हि "प्रत्यक्षमनुमेयमत्यन्तपरोक्षं" च वस्तु जानन्तीति सर्वज्ञानि प्रमाणान्तराणि प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणविशेषाः । तेषामभावं 12 स्वयमसिद्धं प्रत्यक्षमनुमानं वा कथं व्यवस्थापयेद्यतस्तद्विषयं स्यात् ? तथा ३ सति सर्वं प्रमाणं काल में कोई पुरुष सर्वज्ञ नहीं हैं" ऐसा कहेंगे तो आप स्वयं ही सभी देश, काल और पुरुष को जानने वाले होने से सर्वज्ञ हो गये क्योंकि "सर्व जानातीति सर्वज्ञः " अतएव आप चार्वाक सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं कर सकते हैं । [ तत्त्वोपप्लववादी का खंडन ] जो शून्यवादी ऐसा कहते हैं कि ऐसा ही हमें इष्ट है अर्थात् हम कुछ भी प्रमाणादि नहीं मानते हैं इसीलिये कोई दोष नहीं है यह उनकी मान्यता भी अप्रमाणीक ही है ।* तर वोपप्लववादी - सभी प्रत्यक्षादी प्रमाणतत्त्व और प्रमेयतत्त्व उपप्लुत - अभाव रूप ही हैं ऐसा हम स्वीकार करते हैं । जैन - आपकी यह मान्यता प्रमाण से रहित ही है । "सभी तत्त्व उपप्लुत हैं" इस प्रकार की मान्यता "सभी तत्त्व अनुपप्लुत ही हैं" इस मान्यता से विशिष्ट भिन्न नहीं है । जिस प्रकार से तत्त्वोपप्लववादी का “सभी तत्त्व उपप्लुत ही हैं" यह तत्त्व वचन मात्र से सिद्ध है उसी प्रकार से अन्य अतत्त्वोपप्लववादी जैनादिकों का "सभी तत्त्व अनुपप्लुत ही हैं" यह तत्त्व भी वचन मात्र से सिद्ध ही है क्योंकि प्रमाणता या अप्रमाणता दोनों जगह समान ही है । प्रत्यक्ष प्रमाण तो सर्वज्ञ और प्रमाणांतर के अभाव को विषय नहीं करता है, अन्यथा अति प्रसंग आ जावेगा । अनुमान भी विषय नहीं करता क्योंकि वह असिद्ध है । 'सभी - प्रत्यक्ष, अनुमेय और अत्यंतपरोक्ष वस्तु को जो जानते हैं वे सर्वज्ञ अर्थात् भिन्न प्रमाण कहलाते हैं वे प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण विशेष हैं मतलब प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष प्रमाण विषय करता है, अनुमेय को अनुमान एवं अत्यंत 1 प्रत्यक्षानुमानयोर्निराकरणेन । ( ब्या० प्र० ) 2 एकं शून्यमिच्छन्तीत्येके षस्तेषामेकेषाम् (सांख्याभिप्रायेण जनो ब्रूते ) । 3 बाधितं । (ब्या० प्र० ) 4 सांख्याभ्युपगतं । ( व्या० प्र० ) 5 इत्यपि वक्तुं शक्यत्वान्न विशिष्यते । यथा हि तत्त्वोपप्लववादिनां सर्वमुपप्लुतमेवेति वचनामात्रात् सिद्धं तथान्येषामतत्त्वोपप्लववादिनां सर्वमनुपप्लुतमेवेत्यपि वचनमात्रात् सिद्धं भवतु — अप्रामाण्यस्योभयत्र समानत्वात् । 6 यतः । इत्यपि वक्तुं शक्यत्वात् । (ब्या० प्र०) 7 तत्त्वोपप्लववादिनं प्रति वदति तव सर्वं शून्यं केन प्रमाणेन सिद्धं न तावत् प्रत्यक्षात् नाप्यनुमानात्तयोरनगीकारात् । ( ब्या० प्र० ) 8 सर्वज्ञानि च तानि प्रमाणान्तराणि तेषामभावः । 9 प्रत्यक्षानुमानयोरसिद्धावपि किमिति सर्वज्ञप्रमाणांतराभावविषयतेत्याह । देशकालनांतर । ( ब्या० प्र० ) 10 प्रत्यक्षविषयम् । 11 स्वर्गादि । ( ब्या० प्र० ) 12 ( स्वयमसिद्धं प्रत्यक्षमनुमानं वेति कर्तृपदम् ) । 13 ( अतिप्रसङ्गादिति ) भाष्यपदं व्याख्याति ) तदभावविषयत्वे सति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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