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________________ शून्यवाद ] प्रथम परिच्छेद [ १६१ मस्य देशकालनरान्तरप्रत्यक्षाणां स्वयं प्रत्यक्षतः प्रामाण्यस्य साधने सर्वसाक्षात्कारित्वप्रसंगात्, संवादकत्वादिलिङ्गजनितानुमानात्तत्साधने अनुमानप्रामाण्यसिद्धिप्रसक्तेः', परस्य प्रसिद्धनानुमानेन तत्प्रमाणताव्यवस्थापने 'स्वस्यापि तत्सिद्धे रनिवार्यत्वात् । अन्यथा परस्यापि तदप्रसिद्धः कुतः प्रत्यक्षमेकमेव प्रमाणं न 'पुनरन्यदिति व्यवस्था स्यात् ? नरान्तर-भिन्न देश कालवर्ती मनुष्यों के प्रत्यक्ष को स्वयं प्रत्यक्ष से प्रमाणभूत सिद्ध करने पर सभी को . साक्षात्कार करने का प्रसंग आ ही जाता है। संवादक आदि हेतु से उत्पन्न अनुमान से उनको सिद्ध करने पर अनुमान को प्रमाणता की सिद्धि का प्रसंग आ जाता है। हम जैनादिकों के यहाँ प्रसिद्ध अनुमान से उनको प्रमाण व्यवस्थापित करने में आप चार्वाक भी अनुमान को प्रमाणता की सिद्धि का निवारण नहीं कर सकते हैं अन्यथा हम जैनादिकों के यहाँ भी उसकी प्रसिद्धि न होने से प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है, किन्तु अन्य कोई प्रमाण नहीं है यह व्यवस्था भी कैसे हो सकेगी ? अर्थात् कुछ भी व्यवस्था नहीं बनेगी। चार्वाक मत के खण्डन का सारांश चार्वाक हमारे यहाँ ऐसा कथन है कि कोई तीर्थंकर प्रमाण नहीं है, न कोई आगम है, न वेद है अथवा न कोई तर्क, अनुमान आदि ही प्रमाण हैं । बस ! एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है कहा भी है-- तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना, नको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणं । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पंथाः॥ अतः एक देवता रूप बृहस्पति-गुरु ही प्रमाणभूत हैं क्योंकि वही प्रत्यक्ष से सिद्ध पृथ्वी आदि भूत चतुष्टय का उपदेश देता है। जैन-आपका यह कथन भी अप्रमाणीक ही है क्योंकि आपका प्रत्यक्ष सर्वज्ञ के अभाव को तथा अन्य आगम, अनुमान आदि के अभाव को सिद्ध नहीं कर सकता है। तथा आप स्वप्रत्यक्ष रूप एक प्रमाण मानते हैं अतः आपके यहाँ स्वपर को ग्रहण करने वाला बहस्पति-गुरु का ज्ञान प्रत्यक्ष इसमें क्या प्रमाण है ? यदि आप कहो कि यह गुरु परंपरा से सिद्ध है तो हमारा भी सिद्धान्त गुरु परंपरा से सिद्ध है क्या बाधा है ? तथा अनुमान को तो आपने माना ही नहीं है जो कि सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध कर सके । आप कहें कि जैनादिकों के प्रसिद्ध अनुमान से हम सर्वज्ञादि का अभाव करेंगे तो यह बताओ कि प्रमाण से सिद्ध है या प्रमाण से असिद्ध ? यदि प्रथम पक्ष लेवो तो सभी के संवाद का विषय होगा क्योंकि प्रमाण से सिद्ध है अतः आप चार्वाक को भी प्रमाण मानना होगा। हम जैनादिकों को प्रमाण से सिद्ध आप चार्वाक को भी प्रमाणीक मानना होगा। यदि प्रमाण से असिद्ध कहो तो हम जैनादिकों को भी सिद्ध नहीं रहा। तथा इन्द्रिय प्रत्यक्ष के द्वारा सभी पुरुष सर्वज्ञ रहित हैं यह ज्ञान तो हो नहीं सकता यदि आप चार्वाक “सर्वत्र सभी 1 प्रत्यक्षकप्रमाणवादी व्याहतः । (ब्या० प्र०) 2 जैनादेः। 3 चार्वाकस्यापि । 4 (प्रमाणमन्तरेण प्रसिद्धेऽनुमाने सति जनादेरपि । तत्प्रसिद्धिर्न स्यात् ततः)। 5 अतींद्रिय प्रत्यक्षानुमानादिकं । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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