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________________ १६० ] अष्टसहस्री [ कारिका ३सर्वज्ञरहितस्य पुरुषसमूहस्य संवेदनानुपपत्तेः 'प्रमाणान्तराभावस्येव प्रमाणान्तरमन्तरेण । इति सर्वत्र सर्वदा सर्वस्य सर्वज्ञत्वाभावं प्रत्यक्षतः संविदन् स्वयं सर्वज्ञः स्यात् । तथा सति व्याहतमेतत् सर्वज्ञप्रमाणान्तराभाववचनं चार्वाकस्य । प्रत्यक्षकप्रमाणषणं वा व्याहत कर देते हैं इसलिए यह सिद्धान्त विरुद्ध ही है * एवं अति प्रसंग दोष आ जाता है। क्योंकि स्वयं अनिष्ट-अस्वीकृत अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान ही पुनः आप चार्वाक लोगों को हो जावेगा। अन्यथा-इन्द्रिय प्रत्यक्ष के द्वारा तो 'सभी पुरुष सर्वज्ञ रहित हैं' यह ज्ञान हो नहीं सकता है, जैसे प्रमाणांतर-तर्क, अनुमान, आगम आदि के बिना प्रमाणांतर के अभाव का भी ज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के बिना मात्र इन्द्रिय प्रत्यक्ष से हो नहीं सकता है। इस प्रकार से सर्वत्र-सभी जगह, सर्वदा-सभी काल में सभी के सर्वज्ञपने के अभाव को प्रत्यक्ष से जानते हुए वे चार्वाक स्वयं ही सर्वज्ञ हो जावेंगे। पुनः ऐसा होने पर सर्वज्ञ और भिन्न प्रमाणों के अभाव को कहने वाले आप चार्वाक के वचन विरुद्ध ही हो जाते हैं। भावार्थ-जैनाचार्य चार्वाक से प्रश्न करते हैं कि-आप चार्वाक महोदय ! सारे विश्व के सभी पुरुषों को इन्द्रिय प्रत्यक्ष से सर्वज्ञ रहित सिद्ध करते हैं या अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से ? अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष तो आप मानते ही नहीं । एवं इन्द्रिय प्रत्यक्ष से कहो तो आप और हम सभी का इन्द्रिय प्रत्यक्ष विश्व के सभी पुरुषों को देखने में समर्थ ही नहीं है और यदि जबरदस्ती समर्थ मानों तब तो पहले आप अपने प्रत्यक्ष से सारे विश्व के कोने कोने को देखकर सारे पुरुषों के ज्ञान को प्रत्यक्ष करके आवो और निर्णय देवो कि यहाँ विश्व भर में कहीं पर कोई भी सर्वज्ञ नहीं है। और तब सारे विश्व को देख लेने से एवं जान लेने से आप ही तो सर्वज्ञ बन गये पुनः आप सर्वज्ञ का अभाव कैसे कह रहे हैं। अपने आप अपने अस्तित्व को समाप्त करना, अपने आप अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना तो आपको उचित नहीं है। इसी प्रकार से आपका इन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान अनुमान, आगम, तर्क परलोकादि को भी नहीं जान सकता है पुनः उन सबका जान बिना उनका अभाव भा कस कर सकगा! याद आप कि जो वस्तु प्रत्यक्ष गम्य नहीं है उसोका हम अभाव करते हैं तब तो आपके दादा, पड़दादा आदि पुराने पुरुष (पुरुखाजन) दिखते तो हैं नहीं उनका भी अभाव मानना पड़ेगा। और बाप, दादा की परंपरा माने बिना आप की उत्पत्ति भी कैसे हो सकेगी? अत सर्वज्ञ भगवान्, अनुमान, तर्क, आगम आदि प्रमाण एवं परलोकादि का अस्तित्व आपको प्रेम से मान लेना चाहिये और अपनी एवं सभी की आत्मा के अस्तित्व को भी मान लेना चाहिये। बस ! आप आस्तिक्यवादी बन जावेंगे झगड़ा समाप्त हो जावेगा। अथवा प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है ऐसी इच्छा भी आपकी विरुद्ध ही है क्योंकि देश, कालवर्ती 1 संवेदनं ज्ञानम् । 2 अतीन्द्रियप्रत्यक्षेण विना इन्द्रियप्रत्यक्षेणैव प्रमाणान्तराभावस्य संवेदनानुपपत्तिर्य था। 3 ताद्विः । 4 वाञ्छनम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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