________________
१४]
अष्टसहस्री
[ कारिका ३
मन्तरेण वा ? यदि प्रमाणतः सिद्धं नानात्मसिद्ध नाम, प्रमाणसिद्धस्य नानात्मनां वादिप्रतिवादिनां सिद्धत्वाविशेषात् । ' अन्यथा परस्यापि न सिद्धयेत् प्रमाणमन्तरेण सिद्धस्यासिद्धत्वाविशेषात् । तदिमे तत्त्वोपप्लववादिनः स्वयमेकेन केनचिदपि प्रमाणेन स्वप्रसिद्धेन परप्रसिद्धेन वा सकलतत्त्वपरिच्छेदकप्रमाणविशेषरहितं सर्वं पुरुषसमूहं संविदन्त एवात्मानं ' निरस्यन्तीति व्याहतमेतत्-तथा' तत्त्वोपप्लववादित्वव्याघातात् ।
[ उपप्लववादी तत्त्ववादिनं दूषयति ]
'ननु चानुपप्लुततत्त्ववादिनोपि प्रमाणतत्त्वं च प्रमेयतत्त्वं प्रमाणतः सिद्धय ेत् प्रमाण
[ तत्त्वोपप्लववादी जैनादिकों के द्वारा मान्य प्रमाण को लेकर उन्हीं के तत्त्वों का अभाव सिद्ध कर रहा है, उसका निराकरण ]
तत्त्वोपप्लववादी - पर - जैनादि के यहाँ सिद्ध प्रमाण से हम उन सभी वस्तुओं के अभाव को विषय कर लेंगे ।
जैन - यदि ऐसा कहो तो वे पर के यहाँ सिद्ध प्रमाण, प्रमाण से सिद्ध हैं या प्रमाण के बिना ही सिद्ध हैं ?
यदि प्रमाण से सिद्ध हैं तब तो नाना आत्माओं को सिद्ध हैं, क्योंकि जो प्रमाण से सिद्ध है वह नाना आत्माओं को - वादी, प्रतिवादी सभी को ही सिद्ध है, कोई अंतर नहीं है । नानात्म शब्द से 'सभी जनों को ऐसा अर्थ कर सकते हैं अथवा "अनात्म सिद्ध नहीं है" मतलब सभी आत्माओं को सिद्ध है । अभ्यथा यदि कहो प्रमाण बिना प्रमाण के ही सिद्ध है तब तो वह जैन के यहाँ भी सिद्ध नहीं होगा क्योंकि जो प्रमाण के बिना सिद्ध है वह असिद्ध के समान ही हैं । उसे जैनादि भी कैसे मानेंगे ?
इस प्रकार से आप तत्त्वोपप्लववादी स्वयं किसी भी एक प्रमाण से अथवा स्व प्रसिद्धि मात्र से सकल तत्त्वों को बतलाने-जानने वाले प्रमाणों से रहित सभी पुरुषों के समूह को जानते हुए स्वयं अपने आपका ही खंडन कर देते हैं, इसलिये यह कथन व्याहत - विरुद्ध ही है । अर्थात् "सभी पुरुषों का समुदाय सभी तत्त्वों के ग्राहक प्रमाण से रहित है" इस प्रकार से जिसके द्वारा जान लिया गया वही तो प्रमाण है अतएव उसका भी खण्डन करता हुआ अपना ही विघात कर लेता है ।
और यदि आप प्रमाण को स्वीकार करें तब तो तत्त्वोपप्लववादी ही नहीं रहेंगे, किन्तु प्रमाण को मान लेने से आस्तिकवादी ही हो जायेंगे ।
[ उपप्लववादी तत्त्ववादियों को दोष दे रहे हैं ]
तत्त्वोपप्लववादी - अनुपप्लुत तत्त्ववादी आप जैनादिकों का भी प्रमाणतत्त्व और प्रमेयतत्त्व
1 प्रमाणं प्रमाणमन्तरेणसिद्धं चेत् । 2 जैनस्य । 3 भेद । ( ब्या० प्र० ) 4 पुरुषसमूहः सकलतत्त्वविरहित इत्येवं येनावबुद्धं तदेव प्रमाणम् अत एवात्मानं निरस्यन्तीति । 5 विरुद्धं । (ब्या० प्र० ) 6 प्रमाणाङ्गीकारे । 7 तत्त्वोपप्लवादी प्राह । 8 जैनादे: । 9 “प्रमाणत्वं प्रमेयत्वम्" इति पाठान्तरम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org