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भावनावाद ]
प्रथम परिच्छेद
[ १८७
स्वप्रमेयस्य निश्चायेकं, नाप्रसिद्धम्, 'अतिप्रसङ्गादेव ।
अनुमान, तर्क आदि भिन्न प्रमाणों के अभाव को व्यवस्थापित करते हैं इसलिये आप अनुनमत्त कैसे हैं ? अर्थात् आप उन्मत्त सदृश ही हैं ।
क्योंकि जानने वाले प्रतिपत्ता के यहाँ प्रसिद्ध ही प्रमाण अपने प्रमेय का निश्चय कराता है किन्तु अप्रसिद्ध प्रमाण नहीं कराता है अन्यथा अति प्रसंग आ जाता है अर्थात् खरविषाणादि भी प्रमेय की व्यवस्था करने लग जावेंगे।
भावार्थ- चार्वाक पृथिवी, जल, अग्नि और वायु रूप भूत चतुष्टय को मानता है और इन्हीं के संयोग से चैतन्य स्वरूप आत्मा का प्रादुर्भाव भी मान लेता है और जीव के मरने के बाद उस चैतन्य की भी समाप्ति कहता है । आत्मा नाम के तत्त्व को वह चार्वाक नहीं मानता है अतएव ईश्वर के अस्तित्व को भी वह स्वीकार नहीं करता है। तथा प्रत्यक्ष प्रमाण के सिवाय अनुमान, आगम एवं तर्क नाम के प्रमाण भी उसके सिद्धान्त में नहीं हैं, न सर्वज्ञ का अस्तित्व ही है क्योंकि आत्म तत्त्व को माने बिना सर्वज्ञ को मानना तो कथमपि शक्य नहीं है जैसे बाँस के बिना बांसुरी नहीं बजती है। इन नास्तिक वादी चार्वाक जनों को जो कुछ इन्द्रिय प्रत्यक्ष से दिखता है वही विद्यमान हैं इन्द्रिय ज्ञान से परे जो वस्तुएँ हैं वे सब अप्रमाण हैं। क्या पता-यदि चार्वाक के घर में बालक जन्मे और उसके पिता या पितामह का बाहर में ही मरण हो जावे तब वह बालक शायद बड़ा होकर अपने पिता और पितामह आदि के अस्तित्व को भी नहीं मानेगा। इतना सब कुछ होने पर भी वह चार्वाक एक बृहस्पति नाम के अपने गुरु को मान रहा है जबकि वे गुरु भी हम और आपको इन्द्रिय के द्वारा प्रत्यक्ष नहीं हो रहे हैं । अतः जैनाचार्यों ने उस चार्वाक से यह प्रश्न किया कि भाई ! तुम किस प्रकार से बृहस्पति गुरु देव का अस्तित्व मानते हो और किस प्रमाण से सर्वज्ञ, अनुमान, तर्क और आगम तथा आत्म तत्त्व का अभाव सिद्ध करते हो ! क्योंकि तुम्हारा मान्य इन्द्रिय प्रत्यक्ष तो न बहस्पति को देख सकता है और न अनुमानादि के या सर्वज्ञ के अभाव को ही कर सकता है कारण जब वस्तु-घट एक बार प्रत्यक्ष दीखे और पुनः न दीखे तब हम या आप "उस घट का अभाव है" ऐसा कह सकते हैं । अतः तुम चार्वाक तो
से इन बातों को अभाव रूप कैसे कहोगे और अपने गुरु के अस्तित्व को भी कैसे मानोगे? तब उसने कहा कि हम गुरु के अस्तित्व को तो गुरु परम्परा से ही मान लेते हैं । बस ! आचार्य ने कह दिया कि ऐसे ही परंपरा से हमारे द्वारा मान्य सर्वज्ञ भी आप क्यों नहीं मान लेते हो क्योंकि हमारे यहाँ भी परम्परा अविच्छिन्न रूप से प्रामाणिक मानी गयी है। दूसरी बात यह है कि आप चार्वाक अनुमान, तर्क आदि प्रमाण को माने बिना केवल प्रत्यक्ष प्रमाण से सर्वज्ञ के अभाव को कैसे कहेंगे ? क्योंकि इन्द्रिय प्रत्यक्ष के द्वारा तो सभी पुरुष न देखे जा सकते हैं न जाने जा सकते हैं पुनः सभी पुरुषों
1 खरविषाणादिकं व्यवस्थापयेदप्रसिद्धानुमानमित्यर्थः ।
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