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________________ [ कारिका ३ १८६ ] अष्टसहस्री रूपस्याहेतुवादरूपस्य च स एव व्यवस्थापक: स्यादिति कुतस्तदभावसिद्धिः ? सर्वज्ञः स्वपरव्यवस्थापकोस्तीत्यत्र किं प्रमाणमिति चेत् 'स्वप्रत्यक्षकप्रमाणवादिनः प्रत्यक्षान्तरं स्वपरविषयमस्तीत्यत्र किं प्रमाणम् ? 'तथा प्रसिद्धिरन्यत्रापीति न प्रत्यक्षं तदभावावेदकम्, अतिप्रसङ्गस्य दुष्परिहारत्वात् । 'नानुमानम्, असिद्धेः । 1प्रत्यक्षमेकमेव प्रमाणम्, 1 अगौणत्वात्प्रमाणस्य अनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभः । सामान्ये सिद्धसाधनाद् विशेषेनुगमाभावात् "सर्वत्र विरुद्धाव्यभिचारिणः18 संभवात् । इति स्वयमनुमानं निराकुर्वन्ननुमानादेव सर्वज्ञप्रमाणान्तराभावं व्यवस्थापयतीति कथमनुन्मत्तः ? प्रतिपत्तुः प्रसिद्धं हि प्रमाणं है इस प्रकार से हमारे यहाँ गुरु परम्परा से प्रख्याति है। ___ जैन-यदि ऐसा कहो तो अन्यत्र हमारे यहाँ भी सर्वज्ञ के प्रत्यक्ष में भी ऐसी गुरु परम्परा से प्रसिद्धि है । इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण उस सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध करने वाला नहीं है । अन्यथा-अति. प्रसंग का परिहार करना कठिन हो जावेगा। एवं अनुमान प्रमाण भी सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध नहीं कर सकता है क्योंकि आपके यहां असिद्ध है अर्थात् आपने अनुमान प्रमाण को माना ही नहीं है * । आपने कहा है कि "प्रत्यक्षमेकमेव प्रमाणं" अतः वही प्रत्यक्ष प्रमाण ही मुख्य है पूनः अनुमान से इस प्रत्यक्ष के विषय भत अर्थ का निश्चय कैसे होगा? अर्थात् होना दुर्लभ ही है। हे चार्वाक ! आपने तो अनमान का निराकरण करने के लिये कहा है कि-"अनमान सामान्य को सिद्ध करता है या विशेष को ?" यदि सामान्य को कहो तो सिद्ध साधन ही है क्योंकि व्याप्ति के निश्चय के काल में ही सामान्य सिद्ध हो चुका है। एवं दूसरा पक्ष लेवो तो विशेष पर्वतादि साध्य में "जहाँ धूम है वहाँ पर्वताग्नि हैं" ऐसा अनुगम-अन्वय ज्ञान नहीं है अतः सभी जगह अनुमान में विरुद्धादि दोष आते हैं। इस प्रकार से आप स्वयं अनुमान का निराकरण करते हुए भी अनुमान से ही सर्वज्ञ और 1 तर्कशास्त्रस्य, परमागमस्य । (ब्या० प्र०) 2 प्रमाणान्तराभावसिद्धिः। 3 चार्वाक: 1 4 जैनः । 5 चार्वाकस्य । 6 बृहस्पतिप्रत्यक्षम् । 7 चार्वाको वदति-बृहस्पतिप्रत्यक्षं स्वपरग्राहकमित्यस्माकं गुरुपरम्परया प्रख्यातिरस्तीति चेत्तदन्यत्रापि सर्वज्ञप्रत्यक्षेप्येवं भवत् । 8 अन्यथा। 9 चार्वाक आह-अहमनुमानेन सर्वज्ञाभावं साधये । पर आहभवन्मतेनुमानं नास्ति सिद्धेरघटनात् । 10 चार्वाकः। 11 ननु अनुमानाद्यसिद्धावपि सर्वज्ञाद्यभावो भविष्यतीत्याशंक्य कथमनुन्मत्त इत्याद्यारभ्य योज्यं । (ब्या० प्र०) 12 "प्रमाणं तर्हि गौणत्वात्" इत्यादि पाठान्तरम् । 13 अमुख्या (अनुमानतः) न्मुख्यप्रत्यक्षप्रमाणस्यार्थनिश्चयो दुर्लभः। 14 प्रत्यक्षस्य। 15 हे चार्वाक अनुमाननिराकरणार्थे त्वमेवं वदसि । एवं किम् ? अनुमान सामान्यं साधयति विशेषं वा? सामान्यं चेत्सामान्ये सिद्धसाधनादित्यादि। 16 व्याप्तिनिश्चयकाले एव सामान्यस्य सिद्धत्वात् । विशेष पर्वतादौ साध्ये यत्र धमस्तत्र पर्वताग्निरित्यनुगमाभावः। 17 अनुमाने। 18 विरुद्धस्येत्यर्थः हेतोरित्यर्थः। 19 चार्वाकस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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