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चार्वाक मत खण्डन ]
प्रथम परिच्छेद
[ १८५
तदेव गमयेत् तद्विषयाणां च क्षमादीनाम् । इत्यतिप्रसङ्गः स्वयमिष्टस्य वृहस्पत्यादिप्रत्यक्षस्यापि विषयस्याभावसिद्धेः । [ चार्वार्कः कथयति अस्मदीयवृहस्पतिगुरोः प्रत्यक्षं स्वस्य पृथिव्यादिचतुष्टयस्य ज्ञानं कारयति इति
मान्यतायां जनानां प्रत्युत्तरं वर्तते ] अथ प्रत्यक्षान्तरं स्वयमात्मानं व्यवस्थापयति पृथिव्यादिस्वविषयं च, तत्र प्रवर्त्तनात् । अतो न तदभावप्रसङ्ग इति मतं हि सर्वज्ञोपि स्वसंवेदनादात्मानं स्वर्गापूर्वादिविषयं च व्यवस्थापयतीति कथं तदभावसिद्धिः ? प्रमाणान्तरस्य च तद्वचनस्य हेतुवाद
सर्वज्ञ-मुनि और प्रमाणांतर अर्थात् वेदादि आगम, अनुमान एवं तर्क इनके अभाव को यदि कोई प्रत्यक्ष व्यवस्थापित करे तो वहाँ उन विषयों में उस प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं है । अन्यथा पुरुषांतरादि-देशांतर, कालांतरवर्ती पुरुषों के प्रत्यक्षांतर के अभाव को वही प्रत्यक्ष बतला देगा और उनके विषय पृथ्वी आदि विषयों को भी वही प्रत्यक्ष बतला देगा।
पुनः स्वयं इष्ट बृहस्पति आदि के प्रत्यक्ष के भी स्वविषय का अभाव सिद्ध हो जाने से अति प्रसंग आ जावेगा। [ चार्वाक कहता है कि हमारे बृहस्पति का प्रत्यक्ष स्व और पृथ्वी आदि चतुष्टय को बतलाता
है। अतः सर्वज्ञ कोई नहीं है-इस पर जैनाचार्य का उत्तर ] चार्वाक-प्रत्यक्षांतर-बृहस्पति का प्रत्यक्ष स्वयं अपने स्वरूप को और पृथ्वी आदि स्वविषयों को व्यवस्थापित करता है क्योंकि वह उन विषयों में प्रवृत्ति करता है । इसलिये उस प्रत्यक्ष के अभाव का प्रसंग नहीं आता है।
जैन-सर्वज्ञ भगवान भी स्वसंवेदन से अपने को एवं स्वर्गादि, अपूर्व-धर्माधर्मादि विषयों को व्यवस्थापित करता है इसलिये उस सर्वज्ञ के अभाव की सिद्धि कैसे हो सकती है ?
एवं वही सर्वज्ञ, प्रमाणांतर-तर्क, उसके वचन हेतुवाद रूप-अनुमान रूप तथा अहेतुवाद रूप-आगम प्रमाण की व्यवस्था कर देता है। इसलिये भिन्न प्रमाणों का अभाव भी कैसे सिद्ध होगा?
चार्वाक-आपका सर्वज्ञ स्वपर का व्यवस्थापक है इस विषय को सिद्ध करने के लिये कौन सा प्रमाण है ?
जैन-पुनः आप स्वप्रत्यक्ष रूप एक प्रमाण मानने वाले चार्वाक के यहां भी प्रत्यक्षांतर. बृहस्पति का प्रत्यक्ष स्वपर को विषय करने वाला है इसमें भी क्या प्रमाण है ?
चार्वाक-उस प्रकार से प्रसिद्धि है अर्थात् बृहस्पति का प्रत्यक्ष स्व पर को ग्रहण करने वाला
1 वहस्पतिप्रत्यक्षान्तरगोचराणाम् । 2 सविषयस्य इति पा०। स्वविषयस्येति वा प्रतिभाति । (ब्या०प्र०) 3 चार्वाकः। 4 स्वयं स्वस्वरूपम् । 5 जैनः। 6 अपूर्व धर्माधर्मादि। 7 तस्य सर्वज्ञस्य। 8 तर्करूपस्य । 9 हेतुवादरूपस्यानुमानस्येत्यर्थः । अहेतुवादरूपस्य आगमस्येत्यर्थः ।
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