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अष्टसहस्री
[ कारिका ३1"तर्कोप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां 'महाजनो येन गतः स पन्थाः" ॥ इति वचनात् कश्चिद् देवतारूपो गुरुबृहस्पतिर्भवेत् 10संवादकः, प्रत्यक्षसिद्धपृथिव्यादितत्त्वोपदेशात्। इति प्रत्यक्षमेकमिच्छन्ति ये तेषां लौकायतिकानामिष्टिरप्रमाणिकैव, प्रत्यक्षतस्तद्!2व्यवस्थापनासम्भवात् । न खलु प्रत्यक्षं सर्वज्ञप्रमाणान्तराभावविषयम् अतिप्रसङ्गात् । 14सर्वज्ञस्य हि मुनेः प्रमाणान्तरस्य च वेदाद्यागमस्यानुमानस्य च तर्काख्यस्याभावं यदि 1 किञ्चिद्" 16व्यवस्थापयेत्, "तत्राप्रवर्त्तमानत्वात्, तदा पुरुषान्तरादिप्रत्यक्षान्तराणामप्यभावं
जैन-यह आपको मान्यता भी प्रमाण रहित ही है। * चार्वाक हमारे यहाँ ऐसा वचन है कि
कोई तीर्थंकर प्रमाण नहीं है, न कोई आगम है, न वेद हैं, अथवा न कोई तर्क-अनुमान ही प्रमाण है। बस ! हम एक प्रत्यक्ष प्रमाण को ही स्वीकार करते हैं। क्योंकि तीर्थंकर आदि सब में परस्पर में विरोध देखा जाता है क्योंकि कहा भी है
इलोकार्थ-तर्क-अनुमान अव्यवस्थित हैं, शास्त्र नाना अर्थों का प्रतिपादन करते हैं, सुगत, कपिल अथवा जिन कोई एक भी भगवान-तीर्थंकर नहीं हैं कि जिनके वचन प्रमाण हो सकें। इसलिए धर्म का स्वरूप गुफा में रखा हुआ है जिस मार्ग से महापुरुष गये हुए हैं वही मार्ग है ।।
अतः कोई देवता रूप बृहस्पति गुरु ही संवादक-प्रमाण भूत हो सकता है क्योंकि वह प्रत्यक्ष से सिद्ध पृथ्वी आदि भूत चतुष्टय का उपदेश देता है। अतः हम चार्वाक एक प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानते हैं। टिप्पणी में ऐसा भी पाठ है कि कोई अदेवता रूप-असर्वज्ञ रूप बृहस्पति नामक गुरु हैं वही प्रमाणभूत है इत्यादि।
जैन-इस प्रकार से आप एक प्रत्यक्ष प्रमाण ही स्वीकार करते हैं अतः आप "लोकायतिक" इस सार्थक नाम बाले हैं किन्तु आपकी मान्यता भी अप्रमाणीक ही है । क्योंकि प्रत्यक्ष से आपके सिद्धान्त की भी व्यवस्था करना सम्भव नहीं है।
आपका वह प्रत्यक्ष प्रमाण सर्वज्ञ एवं प्रमाणांतर के अभाव को विषय करने वाला नहीं है, अन्यथा अति प्रसंग आ जावेगा।*
1 अव्यवस्थितः । 2 नानार्थप्रतिपादकत्वेन। 3 नासी मुनिः इति पा० । (ब्या० प्र०) 4 सुगतः कपिलो जिनो वा । 5 ततश्च । 6 अप्रयोजकत्वात् । (ब्या० प्र०) 7 गोपालादि । (ब्या० प्र०) 8 पथा। 9 कश्चिददेवतारूपो इति पा० । अदेवतारूप:-असर्वज्ञतारूप इत्यर्थो भवति । (ब्या० प्र०) 10 प्रमाणभूतः। 11 इतो जैन आह । 12 सर्वज्ञादिपरोक्षार्थाभावस्य प्रमाणस्य । 13 ताद्विः (सर्वज्ञप्रमाणान्तरयोरभावः)। 14 अतिप्रसङ्गमेव विवृणोति । 15 किचित् प्रत्यक्ष व्यवस्थापयेत् इति पा० । (ब्या० प्र०) 16 चार्वाकाभिमतम् । 17 प्रत्यक्षं सर्वज्ञप्रमाणान्तरयोर. भावं व्यवस्थापयति-तत्राप्रवर्त्तमानत्वात्। यद्यत्राप्रवर्त्तमानं तत्तस्याभावं व्यवस्थापयति खरविषाणादिवत् । 18 देशान्तरकालान्तरवर्ती पुरुषोत्र ग्राह्यः ।
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