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चार्वाक मत खण्डन प्रथम परिच्छेद
[ १८३ [ अत्रत्यात चार्वाकः सर्वज्ञस्याभावं साधयति तस्य निराकरणं 1 तथेष्टत्वाददोष इत्येकेषामप्रमाणिकवेष्टिः * । 'न कश्चित्तीर्थकरः प्रमाणं, नापि 'समयो वेदोन्यो 'वा 'तर्कः, परस्परविरोधात् ।
में मनु आदि ऋषियों के लिए वेद का प्रकाशन करते हैं फिर ब्रह्मा स्वर्ग को चले जाते हैं और वहाँ हजारों वर्ष तक वेद का स्मरण, चिंतन, अभ्यास करते रहते हैं। पुनः स्वर्ग से उतर कर मर्त्य लोक में आकर उन्हीं मन आदि ऋषियों को वेद के ज्ञान का प्रकाशन करते हैं और वे मनु आदि ऋषीश्वर उस समय में अनेक जीवों को वेद का ज्ञान करा देते हैं। इस प्रकार से ब्रह्मा और मनु आदि की परंपरा भी अनादि काल से चली आ रही है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि आपका कथन "वदतो व्याघात:" नाम के दोष से दूषित है। जैसे कोई पुरुष जोर-जोर से कहे कि “मैं मौनव्रती हूँ" यह वचन स्व वचन बाधित है। क्योंकि आप मीमांसकों ने सभी ही पुरुषों को अतीन्द्रिय पदार्थों के ज्ञान से रहित ही माना है । ब्रह्मा, मनु, बृहस्पति, जैमिनी आदि को भी सूक्ष्म परमाणु, आकाश, पुण्य-पाप आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान कहना शक्य नहीं है। पुनः ब्रह्मा ने भी स्वर्ग में क्या पढ़ा, किससे पढ़ा? इत्यादि प्रश्न उठते ही चले जावेंगे ।
एक किंवदंती है कि "ढेकी स्वर्ग में चली जाये तो भी धान ही कूटेगी ?" अतः तुम्हारा कथन सिद्ध नहीं हो पाता है कि वेद "अपौरुषेय" होने से प्रमाण है।
वेद की प्रमाणता के खण्डन का सारांश ___ सुगत आदि सभी परस्पर में विरुद्ध अर्थ का कथन करने वाले होने से सभी सर्वदर्शी, सर्वज्ञ नहीं हैं अतः कोई भी सर्वज्ञ नहीं है ऐसा भी नहीं कहना क्योंकि आपके अपौरुषेय वेद भी प्रमाण नहीं है जैसे आपने "सर्व वै खल्विदं ब्रह्म" कहा है वैसे ही सांख्य ने कहा है कि "प्रधानमेव सर्वं" सभी जगत प्रधान । तथा कोई भी वेद चाहे विधि अर्थ ग्राही हो चाहे नियोग एवं भावना अर्थ ग्राही हों वे स्वयं अन्य का परिहार करके अपने अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते हैं "नियोग अर्थ में ही मैं प्रमाण हूँ, विधि में नहीं या भावना में ही मैं प्रमाण हूँ नियोग में नहीं" इत्यादि एवं कोई भी मनुष्य अश्रुतपूर्व-पहले नहीं सुने हुए वेदवाक्य के अर्थ को समझने में समर्थ नहीं हो सकता है अतः सुगत आदि के समान आपके वेद भी अप्रमाण ही हैं। क्योंकि परस्पर में विरोधी हैं।
रूप
[चार्वाक सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध करना चाहता है उसका निराकरण ] चार्वाक-हमें वैसा हो इष्ट है अत: कोई दोष नहीं है । अर्थात् कोई भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता है, यही बात हमें इष्ट है इस मान्यता में तो कोई भी दोष नहीं है।
1 इतश्चार्वाकमतप्रसङ्गः। 2 प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमिच्छन्ति एके चार्वाकास्तेषाम् । 3 प्रमाणरहिता। 4 मूलं व्याख्याति । (ब्या० प्र०) 5 आगमः। (व्या० प्र०) 6 सुगतादि । (ब्या० प्र०) 7 तर्कोनुमानम् । 8 सर्वथा नित्यत्वानित्यत्वादिसमर्थनार्थ सौगतकापिलादिप्रयुक्तानुमानानां परस्परविरोधात्तर्कस्य परस्परविरोधः ।
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