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१८८ ]
अष्टसहस्री
[ कारिका ३
[ चार्वाको ब्रूतेऽहं भवद्भिर्मान्येनानुमानेन स्वप्रत्यक्षप्रमाणमंतरेण सर्वज्ञस्य भिन्न प्रमाणानां च अभाव साधयामीति मान्यतायां जनाः प्रतिबोधयंति ]
परप्रसिद्धमनुमानं सर्वज्ञप्रमाणान्तराभावग्राहकमिति चेत् तत् परस्य प्रमाणतः सिद्धं प्रमाणमन्तरेण वा ? यदिः प्रमाणत सिद्धं नानात्मसिद्धं नाम, परस्येवात्मनोपि वादिनः सिद्धत्वात् प्रमाणसिद्धस्य 'सर्वेषामविप्रतिपत्तिविषयत्वाद्, अन्यथातिप्रसङ्गात्, प्रत्यक्षस्यापि प्रमाणसिद्धस्य विप्रतिपत्तिविषयत्वापत्ते रनात्मसिद्धत्वप्रसङ्गात् । ततो यत्परस्य ' प्रमाणतः सिद्धं तच्चार्वाकस्यात्मसिद्धम् । यथा प्रत्यक्षम् । प्रमाणसिद्धं च परस्यानुमानम् ।
में "विश्व में कोई भी सर्वज्ञ नहीं है" यह कहना सर्वथा असम्भव है । एवं अनुमान प्रमाण से सर्वज्ञ के अभाव को कहते हुए भी आप चार्वाक अनुमान प्रमाण को मानने को तैयार नहीं हैं तो शायद आप उन्मत्त - पागल ही हो रहे हैं ऐसा मालूम पड़ता है क्योंकि जिस प्रमाण से आप अपने जिस नास्तित्व सिद्धान्त की व्यवस्था करते हैं उस अनुमान को तो आपको पहले मानना पड़ेगा । असत्यभाषी - - झूठे व्यक्ति की साक्षी से किसी को अपराधी - झूठा साबित करना अशक्य ही है ।
[ चार्वाक कहता है कि हम आप लोगों के द्वारा मान्य अनुमान को लेकर उससे सर्वज्ञ को और प्रत्यक्ष के सिवाय भिन्न सभी प्रमाणों का अभाव सिद्ध कर देते हैं । इस पर जैनाचार्य उसे समझाते हैं । ]
चार्वाक- - आप जैनादि के यहाँ जो प्रसिद्ध अनुमान है वही सर्वज्ञ और प्रमाणांतरों के अभाव को ग्रहण करने वाला है ।
जैन - यदि ऐसा है कि वह अनुमान प्रमाण जैनादिकों के यहाँ प्रसिद्ध है तो प्रश्न यह होता है कि अनुमान उनको प्रमाण से सिद्ध है या प्रमाण के बिना सिद्ध है ? " यदि प्रमाण से सिद्ध है तो वह अनात्म सिद्ध नहीं है" पर के समान आप चार्वाक वादी को भी स्वयं सिद्ध है क्योंकि जो प्रमाण से सिद्ध है वह सभी के संवाद का विषय है अर्थात् उस प्रमाण से सिद्ध में किसी को भी विसंवाद नहीं हो सकता है । अन्यथा अति प्रसंग आ जावेगा । यदि प्रमाण से सिद्ध प्रत्यक्ष भी विसंवाद का विषय हो जावे तो वह अनात्म सिद्ध हो जावेगा, अर्थात् आत्म सिद्ध चार्वाक के द्वारा मान्य प्रत्यक्ष भी असिद्ध हो जावेगा ।
इसलिए जो पर - हम जैनादिकों को प्रमाण से सिद्ध है वह चार्वाक को भी आत्म सिद्ध है । जैसे प्रत्यक्ष और पर का अनुमान प्रमाण सिद्ध है इसलिये अनात्म सिद्ध नहीं है । अन्यथा - प्रमाण के बिना हम जैनादि को भी सिद्ध नहीं होगा * । क्योंकि अति प्रसंग ही आता है । तथाहि ।
"जो प्रमाण के बिना सिद्ध है वह पर- हम जैनादिकों को भी सिद्ध नहीं है जैसे उसका
5 वादिप्रतिवादिनां ।
1 चार्वाक आह— जैनादिप्रसिद्धम् । 2 जनादे: । 3 चार्वाकस्यापि । 4 कुतः ? यतः । ( ब्या० प्र० ) 6 यथा प्रत्यक्षम् । 7 अतिप्रसङ्ग विवृणोति । 8 आत्मसिद्धस्य चार्वाकस्वीकृतस्य प्रत्यक्षस्याप्यसिद्धत्वं घटेतेत्यर्थः । 9 जैनादेः ।
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