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वेद की अप्रमाणता ]
प्रथम परिच्छेद
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तावल्लोके येष्वर्थेषु प्रसिद्धानि तेष्वेव वेदे, 'तेषामध्या हारादिभिरर्थस्यापरिकल्पनीयत्वादपरिभाषितव्यत्वाच्च । सति सम्भवे लौकिकपदार्थज्ञश्च विद्वानश्रुतपूर्वं काव्यादिवाक्यार्थमवबुध्य
होते हैं अतः वे रागद्वेष के वशीभूत होकर अन्यथा भी अर्थ कर सकते हैं ।।।
दूसरी बात यह है कि अल्पज्ञ पुरुष के द्वारा व्याख्यान किये गये अर्थ विशेष से "अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः" इत्यस्य खादेच्छ्वमाँसम् इत्यपि वाक्यार्थः किं न स्यात् ।
(प्रमेयरत्नमाला पृ० २२०) टिप्पणी-अग्निं हंतीति अग्निहा श्वा तस्यात्रं मांसं जुयात्खादेत् । अथवा अगति गच्छति इत्यग्निःस्वा, हूयतेऽद्यते खाद्यते यत्तत् होत्रं माँसं। अग्ने)त्रमित्यग्निहोत्रं प्रवमाँसं तज्जुहुयात् खादेत् स्वर्गकामः पुमान् द्विजः ।
अर्थ- स्वर्ग की इच्छा करने वाला पुरुष अग्निहोत्र करे.-हवन करे" इस वाक्य का अर्थ "कुत्ते का मांस खावे" ऐसा भी अर्थ क्यों न संभव मान लिया जावे ?
अल्पज्ञ पुरुष रागादि के वशीभूत होकर उक्त वेदवाक्य का ऐसा अर्थ कर सकता है कि अग्नि को जो हने वह "अग्निहा" अर्थात् कुत्ता है, उसका 'अत्र' जो मांस उसे 'जुहुयात्' अर्थात् खावे । अथवा “अगति गच्छति" इस निरुक्ति के अनुसार जो चले उसे 'अग्नि' अर्थात् कुत्ता कहते हैं । "हूयते अद्यते खाद्यते यत्तत् होत्रं" इस निरुक्ति के अनुसार 'होत्र' का अर्थ मांस है । अग्नि अर्थात् कुत्ते के मांस को खावे, इस प्रकार भी वही अर्थ निकल आता है। किन्तु ऐसा अर्थ आपको भी मान्य नहीं होगा, अतः अल्पज्ञ व्याख्याता का मानना ठीक नहीं है। थोड़ी देर के लिए आप वेद का अर्थ अनादिकाल से चली आ रही व्याख्यान परंपरा द्वारा आया हुआ मान भी लेवें, तो भी किसी वक्ता के द्वारा गुरु से गृहीत अर्थ का विस्मरण हो जाने से या वचन बोलने की चतुराई न होने से अथवा दुष्ट अभिप्राय से गलत अर्थ का प्रतिपादन भी हो सकता है। आजकल भी ऐसे लोग देखे जाते हैं जो ज्योतिष आदि शास्त्रों के रहस्य को अच्छी तरह जान करके भी दुष्ट अभिप्राय से गलत बता देते हैं या प्रतिपादन की शैली न होने से अथवा कितने ही व्याख्याता वाक्यार्थ का सम्बन्ध भूल जाने से उल्टा सुल्टा अर्थ भी कर देते हैं। अतः वेद अपौरुषेय होने से प्रमाण नहीं हैं।
1 वेदगतपदानाम् । 2 प्रकरण-"प्रस्तावादथवौचित्याद्देशकालविभागतः । शब्दरर्थाः प्रतीयंते न शब्दादेव केवलात् ।" प्रस्तावे- भोजनप्रस्तावे सैधवमानीयतामित्युक्ते लवणमेव न तु सिंधुदेशीयोश्वः । औचित्ये-मातंगगामिनी गच्छतीत्युक्ते हस्तिनी न तु चांडालः । देशे-अयोध्यायां रामलक्ष्मणौ इत्युक्ते दशरथसुतौ न तु शुकसारसो । काले
-रात्री पतंगो भ्रमतीत्युक्ते खद्योत एव न तु सूर्यः । (ब्या० प्र०) 3 आदिना प्रकरणादिग्रहः । 4 गण्डकाश्चतुरो गुञ्जा इत्यादि-गणितपरिभाषावद्वयवहारकालात्पूर्वमस्य शब्दस्यायमर्थ इति सङ्केतस्योत्तरकालं व्यवहारनिमित्तस्य कारणं परिभाषण तस्याविषयत्वाच्चेत्यर्थः । 5 येष्वर्थेषु लौकिकपदानां सम्भवस्तेष्वेवार्थेषु वैदिकपदानां सम्भवे सति ।
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