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________________ १५० ] [ कारिका ३ मानो दृष्टः । तद्वच्छ्र तिवाक्यार्थमपि कश्चित्स्वयमेवाश्रुतपूर्वमवबोद्धुमर्हतीति युक्तं श्रुतेः स्वयमेवान्यव्यवच्छेदेन स्वार्थप्रतिपादनम्" इति कश्चित् सोपि न परीक्षाचतुरः, सर्वस्याः श्रुतेस्तथा भावाविशेषात् । न च भावनैव नियोग एव वा लौकिकवाक्यस्यार्थः शक्यः 'प्रतिष्ठापयितुं, येन वैदिकवाक्यस्यापि स एवार्थः स्यात् । नापि सन्मात्रविधिरेव कस्यचिद् वाक्यस्यार्थः शक्य प्रतिष्ठो, येन श्रुतिवाक्यस्यापि स एवार्थोऽन्ययोगव्यवच्छेदेन स्यात्, 'तत्रा - नेकबाधकोपन्यासात् । ततः सुगतादिवच्छू तयोपि न प्रमाणमित्यायातम् । अष्टसहस्री मीमांसक - लोक में जिन अर्थों में पद प्रसिद्ध हैं उन्हीं अर्थों में ही वे पद वेद में हैं । उन वेदगत पदों का अध्याहारादि - प्रकरण आदि से अर्थ परिकल्पित नहीं किया जा सकता है और न वे परिभाषितव्य ही हैं अर्थात् वेदवाक्य परिभाषण के विषय नहीं हैं । जिन अर्थों में लौकिक पदों का अर्थ संभव है उन्हीं अर्थों में वैदिक पदों के अर्थ भी संभव हैं जिस प्रकार से लौकिक पद के अर्थ को जानने वाला विद्वान् अश्रुतपूर्व काव्यादि वाक्यों के अर्थ को समझता हुआ देखा जाता है । उसी प्रकार से कोई मनुष्य स्वयं ही अश्रुतपूर्व वेदवाक्य के अर्थ को भी समझने में समर्थ हो सकता है । इसलिए वेद स्वयमेव अन्य का व्यवच्छेद करके अपने अर्थ का प्रतिपादन करते हैं यह कथन युक्त ही है । जैन - ऐसा कहने वाले आप मीमांसक भी मीमांसा - परीक्षा करने में कुशल नहीं हैं। क्योंकि सभी वेदों में तथाभाव-लौकिक वाक्यार्थ के अनुसार अर्थ का प्रतिपादन करना समान ही है । लौकिक वाक्य का अर्थ भावना ही है अथवा नियोग ही है, ऐसा अर्थ व्यवस्थापित करना शक्य नहीं है कि जिससे वैदिक वाक्य का भी वही अर्थ हो सके अर्थात् नहीं हो सकता है एवं किसी वेदवाक्य का अर्थ सन्मात्र विधि ही है ऐसा भी कहना शक्य नहीं है कि जिससे वैदिक वाक्य का भी अन्य का व्यवच्छेद करके वही अर्थ हो सके अर्थात् नहीं हो सकता क्योंकि उन वेदवाक्यों में तो अनेक बाधायें दी गई हैं । इसलिये सुगत आदि के समान वेद भी प्रमाण नहीं हैं यह बात सिद्ध हो गई । विशेषार्थ - श्लोकवार्तिक में इस अपौरुषेय वेद के खण्डन में विशेष रूप से विचार किया गया है । मीमांसक ने अनादिनिधन अपौरुषेय वेदवाक्यों से ही अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान होना माना है वे सर्वज्ञ को तो मानते नहीं हैं । इस पर जैनाचार्य ने प्रश्न किया कि तुम्हारे वेदवाक्यों का व्याख्याता रागी है या वीतरागी ? तब उन्होंने बताया कि हमारे वेद के अर्थ के व्याख्यान करने वाले मनु, याज्ञवल्क, व्यास आदि ऋषियों को उस वेद के अर्थ का पूर्ण ज्ञान था अतः उनको वेद के विषय में रागद्वेष का अभाव था । इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि भाई ! यदि आप मूल में सर्वज्ञ मान लेवें तब तो ठीक 1 लौकिक काव्यादिवाक्यार्थमिव । 2 मीमांसकः । 3 लौकिक वाक्यार्थानुसारेणार्थस्य प्रतिपादकत्वभावाविशेषात् । 4 एतदेव भावयति जैनः । 5 घटशब्दस्य यथा घटार्थो न तथा भावनानियोगावर्थ: । ( व्या० प्र० ) 6 सर्वश्रुतिषु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org v
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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