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अष्टसहस्री
[ कारिका ३[ कानिचित् वेदवाक्यानि स्वयं स्वस्यार्थं न प्रतिपादयंत्यत: वेदस्य प्रामाण्यं न सिद्धयति ] न च काचिच्छ तिः स्वयं स्वार्थं प्रतिपादयत्यन्य व्यवच्छेदेन कार्ये एवार्थे अहं प्रमाणं न स्वरूपे; स्वरूपे एव वा न कार्येऽर्थे सर्वथेत्यविशेष: सिद्धः । ननु च “पदानि'
ही हैं । इस पर आचार्य कहते हैं कि क्षण अत्यन्त सूक्ष्म हैं उनको लक्षित करना-जानना संभव नहीं है अतः धारावाहिकज्ञानों में उक्त लक्षण की अव्याप्ति निश्चित है । [ कोई भी वेद वाक्य स्वयं अपने अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते हैं । अतः वेद की प्रमाणता सिद्ध नहीं
होती है ] जैन-कोई वेद चाहे विधि अर्थ ग्राही हों चाहे नियोग या भावना अर्थ ग्राही हों वे वेद स्वयं अन्य का व्यवच्छेद करके अपने अर्थ का प्रतिपादन नहीं कर सकते हैं।
"कार्य-नियोग" अर्थ में ही मैं-वेद प्रमाण हूँ स्वरूप में नहीं, अथवा स्वरूप अर्थ में ही मैं प्रमाण हैं कार्य अर्थ में सर्वथा नहीं। इस प्रकार से वेद वाक्य स्वयं अपने अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते हैं । अतः सभी की मान्यता में वे अविशेष-समान रूप से सिद्ध हैं।
विशेषार्थ-वेद के अपौरुषेयत्व के खण्डन में प्रमेयरत्न माला में भी बहुत ही सरल एवं सुन्दर विवेचन है। "प्रवाहनित्यत्वेन वेदस्यापौरुषेयत्वं" मीमांसकों ने प्रवाह की नित्यता से वेद को अपौरुषेय माना है। इस पर जैनाचार्य प्रश्न करते हैं कि आप मीमांसक सभी शब्दों को अनादि नित्य मानते हो या कुछ वेद विशिष्ट शब्दों को ही अनादि नित्य मानते हो यदि सभी को अनादि नित्य कहो तो जो शब्द लौकिक हैं वे ही वैदिक हैं, पूनः वेद ही अपौरुषेय हैं, लौकिक या कृत्रिम शास्त्रादि के शब्द अपौरुषेय नहीं हैं यह आपने कैसे कहा ? आप तो अपनी मान्यतानुसार संसार के सभी सच्चे झूठे जैन, बौद्ध आदि शास्त्रों को अपौरुषेय मानकर सच्चे कहो। यदि आप यह पक्ष न लेकर विशिष्ट आनुपूर्वी से आये हुये विशिष्ट वैदिक शब्दों को ही अनादि नित्य कहो, तब तो हम पुनः प्रश्न करते हैं कि जिन शब्दों का अर्थ जान लिया है उनको अनादिता है या जिनका अर्थ नहीं जाना है उनको ? इसमें यदि दूसरा पक्ष लेवो तब तो आपको अज्ञान रूप अप्रमाणता ही रही। यदि प्रथम पर तब हम पूनः प्रश्न करते हैं कि उन वेदों के व्याख्यान करने वाले अल्पज्ञ हैं या सर्वज्ञ ? सर्वज्ञ रूप दूसरा पक्ष तो आपको अनिष्ट ही है एवं अल्पज्ञ को वेद का व्याख्याता मानने से तो अन्यथा विपरीत अर्थ की भी संभावना हो सकती है।
अयमर्थो नायमर्थ इति शब्दा वदंति न । कल्प्योऽयमर्थः पुरुषस्ते च रागादिविप्लुताः॥
अर्थ-'मेरा यह अर्थ है और यह अर्थ नहीं है" इस प्रकार से शब्द तो स्वयं बोलते नहीं हैं। शब्दों का यह अर्थ तो पुरुषों के द्वारा ही कल्पित किया जाता है। और पुरुष रागादि दोषों से दूषित
1 पराभिप्रायं निराकरोति जैनः। 2 विधिग्राहिणी नियोगग्राहिणी वा। 3 स्वरूप । (ब्या० प्र०) 4 श्रुतिः । 5 श्रतेरविशेषादप्रमाणतापत्तेरित्यत्र भाष्येऽविशेषपदं व्याख्यातं । (ब्या० प्र०) 6 मीमांसकः। 7 श्रुतेः स्वयमेवान्यव्यवच्छेदेन स्वार्थप्रतिपादनं युक्तमित्याह परः। यथा घटशब्द: पटस्य व्यवच्छेदने पृथ बुध्नोदराकारे घटस्वरूपे प्रवर्तते तथा वेदवाक्यमिति शंकामनूद्य वदति । (ब्या० प्र०) 8 पचति भवतीत्यादीनि । (व्या० प्र०)
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