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वेद की अप्रमाणता ] प्रथम परिच्छेद
[ १७७ सर्वस्याः श्रुतेरविशिष्टं, 'प्रमाणान्तराप्रतिपन्ने धर्मादौ परब्रह्मादौ प्रवृत्तेः । न उत्पन्न हुई है, मृत्पिड से घड़ा नहीं बना है किन्तु मिट्टी में घड़ा सदैव विद्यमान था कुम्हार चाक आदि व्यञ्जक कारणों से मिट्टी में घट प्रकट हो गया है, पहले मिट्टी में तिरोभूत था । अतएव यह सांख्य प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव को भी नहीं मानता है जिसका आगे कारिका १०वी ११वीं में
किया गया है। अतः यहाँ जैनाचार्यों का यही कथन है कि जैसे आप "सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म" कहते हो वैसे ही सांख्य सारे विश्व को प्रधानात्मक कहते हैं पूनः आप उनके भी सिद्धांत को प्रमाण क्यों नहीं मानते हैं ? आप जिन-जिन हेतुओं से उनके प्रधान तत्त्व को दूषित करेंगे हम जैन भी उन्हीं-उन्हीं हेतुओं से आपके ब्रह्मवाद को भी दूषित कर देंगे। यदि आप आगम प्रमाण से अपनी मान्यता सिद्ध करेंगे तो वे सांख्य भी अपने आगम को प्रमाण मानकर अपनी मान्यता पुष्ट करेंगे । अतः या तो आप और सांख्य इन दोनों के वचन भी प्रमाणिक माने जाने चाहियें या तो दोनों के वचनों को अप्रमाणिक कहना चाहिए क्योंकि और तो कोई उपाय है नहीं।
__ मोमांसक-पुनः सभी वेद अपूर्वार्थ को ही विषय करते हैं अतः समान हैं प्रमाणांतर से नहीं जाने गये धर्मादि और पर-ब्रह्मादि में उनकी प्रवृत्ति है। अर्थात् धर्म अधर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों को और परम-ब्रह्म को अन्य प्रमाण नहीं बता सकते हैं ये वेदवाक्य ही इनका ज्ञान कराते हैं अतः प्रत्यक्षादि प्रमाणों की धर्मादि में एवं ब्रह्मा आदि में प्रवृत्ति नहीं होती है। इसीलिए ये वेद "अनधिगत"-पूर्व में नहीं जाने गये अर्थ का ज्ञान कराने वाले होने से प्रमाण हैं क्योंकि भाट्ट ने प्रमाण का लक्षण यही माना है।
विशेषार्थ-"अनधिगततथाभूतार्थनिश्चायक प्रमाणं" (न्यायदीपिका पृ० १२३) इस प्रकार से भाट्टों ने प्रमाण का लक्षण माना है वे कहते हैं कि यह लक्षण मीमांसक के एक भेद रूप हम भाट्टों के यहाँ अपौरुषेय वेद में पाया जाता है क्योंकि धर्मअधर्म और परमब्रह्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों को प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाण नहीं बता सकते हैं किन्तु ये वेद उनको भी बता देते हैं अतः हमारे वेद पूर्व में नहीं जाने गये अपूर्वार्थ को ही विषय करने वाले हैं और ये वेद अपौरुषेय होने से प्रमाण हैं । ऐसा सर्वज्ञ का अभाव करने वाले मीमांसक स्वीकार करते हैं। इस कथन पर जैनाचार्यों ने इस भाट्ट द्वारा मान्य प्रमाण के लक्षण का न्यायदीपिका में सुन्दर खण्डन किया है आचार्य कहते हैं कि आप भाट्ट-मीमांसकों का यह प्रमाण का लक्षण अव्याप्ति दोष से दूषित है क्योंकि आपके द्वारा ही प्रमाण रूप से मान्य धारावाहिक ज्ञान अपूर्वार्थ ग्राही नहीं है। "यह घट है, यह घट है, यह घट है" इत्यादि रूप से जाने हुए को जानते बैठना धारावाहिक ज्ञान का लक्षण है । भाट्ट कहता है कि धारावाहिकज्ञान भी अगले-अगले क्षण से सहित अर्थ को ही विषय करते हैं अतः अपूर्वार्थ विषयक
1 प्रत्यक्षादि । (ब्या० प्र०)
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