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________________ १७६ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३विशेषार्थ-सांख्य ने मूल में दो तत्त्व माने हैं एक प्रकृति दूसरा पुरुष । प्रकृति को वे अचेतन या जड़ मानते हैं और पुरुष को चेतन । प्रकृति से महान् उत्पन्न होता है। (सृष्टि से लेकर प्रलय काल तक स्थिर रहने वाली बुद्धि को महान् कहते हैं) महान् से अहंकार उत्पन्न होता है । अहंकार से सोलह गण पैदा होते हैं (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, वचन, हस्त, पाद पायु-मल द्वार और उपस्थ-- मूत्रद्वार ये पांच कर्मेन्द्रियाँ, मन तथा स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द ये पांच तन्मात्रायें ये सोलह गण कहलाते हैं) इन सोलह गण के अन्तर्गत जो पांच तन्मात्रायें हैं उनसे पंचभूत उत्पन्न होते हैं । __ अर्थात् शब्द से आकाश उत्पन्न होता है अतः उसमें एक शब्द गुण पाया जाता है । शब्द सहित स्पर्श से वायु उत्पन्न होती है अतः वायु में शब्द और स्पर्श पाये जाते हैं । शब्द, स्पर्श से सहित रूप से अग्नि उत्पन्न होती हैं अतः उस अग्नि में शब्द, स्पर्श और रूप ये तीन गुण पाये जाते हैं। शब्द, स्पर्श और रूप से सहित रस से जल बनता है । अत: जल में ये चारों गुण पाये जाते हैं । शब्द, स्पर्श, रूप और रस से सहित गंध से पृथिदी उत्पन्न होती है अतः पृथ्वी में ये पांचों गुण पाये जाते हैं । प्रकृति से लेकर पंचभूत तक ये २४ तत्त्व अचेतन हैं एवं एक पुरुष तत्त्व चेतन है । प्रकृति इस संपूर्ण सृष्टि को करने वाली है और पुरुष उसका भोक्ता है । इस प्रकृति का दूसरा नाम प्रधान भी है । सृष्टि के प्रारम्भ काल में प्रधान अपने भीतर से ही सारे संसार को उत्पन्न करता है और प्रलय काल में सारे संसार को अपने भीतर ही प्रलय रूप से समाविष्ट कर लेता है । यह प्रधान स्वयं किसी से उत्पन्न नहीं होता है अतः अजन्मा है। इसका मूल स्वरूप किसी के दृष्टिगोचर नहीं है अत: यह अव्यक्त है और इसके कार्य दृष्टिगोचर होते हैं अतः इसे ही व्यक्त भी कहते हैं । पुरुष को छोड़कर शेष समस्त तत्वों को (विश्व को) उत्पन्न करने में यह प्रमुख कारण है अतएव यह प्रधान कहलाता है। पुरुष इससे विपरीत स्वभाव वाला है सत्त्व, रज, तम आदि तीन गुणों से रहित है, अन्य-प्रधान को विषय करने वाला चेतन है, प्रधान तो एक है, किन्तु पुरुष अमेक हैं। प्रधान अचेतन है, सामान्य है। पुरुष चेतन है, कूटस्थ नित्य है, चेतना गुण का अनुभव करने वाला है, ज्ञान से शून्य है, ज्ञान तो प्रधान का धर्म है। जब तक पुरुष के साथ प्रधान का संसर्ग है तभी तक वह पुरुष ज्ञानी दीखता है। कार्यों के एक रूप अन्वय देखे जाने से तथा महत् आदि भेदों का परिणाम पाये जाने से उन कार्यों का एक प्रधान कारण से उत्पन्न होना सिद्ध है जैसे घट, घटी, सराव, उदञ्चन आदि में मिट्टी एक अन्वय रूप से मौजूद है उसी प्रकार से महान् अहंकार आदि कार्यों में-सारे सृष्टि रूप जगत में एक प्रधान का ही अन्वय पाया जाता है अतः यह सारा जगत प्रधानात्मक ही है । सांख्य ने उत्पाद और विनाश को भी नहीं माना है क्योंकि यह कूटस्थ नित्यैकान्तवादी है। उसका कहना है कि वस्तु में जो उत्पाद, विनाश दिखता है वह केवल आविर्भाव, तिरोभाव रूप है न कोई वस्तु नष्ट हुई है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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