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वेद की अप्रमाणता ]
प्रथम परिच्छेद
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इत्यादे:1 "सर्वं प्रधानमेव" इत्यादेरिव स्वविषये प्रमाणत्वायोगात् । अपूर्वार्थत्वं' पुनः
मांसक
के अनेक पापाचार दूर हो जावेंगे एवं सज्जनों के बचे रहने से वात्सल्य प्रेम आदि बढ़ेगे अतः धनिकों का वध भी कर्तव्य रूप है जैसे कि होम में पशुओं को हवन करना कर्त्तव्य रूप है इन दोनों में कोई अंतर नहीं है। इस पर पुनः मोमांसक कहता है कि वेद में लिखी हुई हिंसा को करने से या युद्ध में मरने से अवश्य ही स्वर्ग मिलता है, किन्तु खरपट के यहाँ कही गई हिंसा से स्वर्ग नहीं मिलता है । आचार्य कहते हैं इस प्रकार से आपके कहने में कोई प्रमाण नहीं हैं, दोनों हो समान रूप से हिंसा के कारण हैं अतः या तो दोनों ही प्रमाण होंगे, अथवा दोनों के ही कथन अप्रमाण हो जावेंगे। इस पर कहता है कि कल्याण की इच्छा करने वालों के द्वारा यज्ञ किये जाते हैं अतः वे यज्ञ सधनवध उससे विपरीत होने से श्रेयस्कर नहीं है। एवं 'यज्ञ' धर्म शब्द से कहा जाता है जो यज्ञ करता है वह "धार्मिक" कहलाता है। आचार्य कहते हैं आपका यज्ञ भो सुगत जैन आदिकों के द्वारा अधर्म शब्द से भी कहा जाता है। एवं सधनवध भी खारपटिक और हिंसक जनों के द्वारा धर्म कहा जाता है। एवं लोक हितपना दोनों में भी समान है अतः सधनवध और अग्नि हो
ग्नि होत्र दोनों ही समान हैं । बाध वजित हेतु से रहित हैं, अतः अप्रमाण हैं। ऐसा समझना चाहिए। इसका विशेष स्पष्टीकरण श्लोकवार्तिकालंकार प्रथम पुस्तक में देखिये ।
कित
पुरुषार्थ सिद्धय पाय में अमृतचंद सूरि ने भी कहा है कि
"धनलवल पिपासितानां विनेयविश्वासनाय दर्शयितां ।
झटिति घटचटकमोक्षं श्रद्धेयं नैव खारपटिकानां ॥८८।। अर्थ-थोड़े से धन के प्यासे और शिष्यों को विश्वास करने के लिए दिखलाने वाले शीघ्र ही घड़े के फूटने से चिड़ियों के मोक्ष के समान मोक्ष का श्रद्धान नहीं करना चाहिये। कत्थे के रंग के कपड़े पहनने वाले एक प्रकार के सन्यासी खारपटिक हैं वे लोग घट के फूटने से चिड़ियों के उड़ जाने के समान ही शरीर के छूट जाने को ही मोक्ष कहते हैं। अतएव इन लोगों ने सधनवध आदि कारणों से शरीर के नष्ट हो जाने से सुख को प्राप्ति मान ली है ऐसा मालूम पड़ता है।
और पुरुषाद्वैत को कहने वाले “सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म' इत्यादि वाक्य "सर्व प्रधानमेव" इत्यादि के समान ही अपने विषय को बतलाने में प्रमाण नहीं हैं। अर्थात् जैसे सांख्य कहता है कि सभी जगत प्रधान रूप है वैसे ही वेदवाक्य कहते हैं कि सभी जगत परम ब्रह्म रूप ही है जैसे आप सांख्य के कथन को अप्रमाणोक कहते हो तथैव आपके वेद वचन भो अप्रमाणोक ही हो जाते हैं।
1 संप्रदायस्य । (ब्या० प्र०) 2 साङ्ख्यमते सर्व प्रधानमेव । 3 अपूर्वार्थग्राहित्वम् । 4 धर्मादौ परब्रह्मादौ प्रत्यक्षादिकं न प्रवर्तते अतएव श्रुतेरनधिगतार्थाधिगंतृत्वं । भट्टप्रतिपादितं । (ब्या० प्र०)
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