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________________ ( २३ ) संसार के कारण की समीक्षा सांख्यों ने मिथ्याज्ञान मात्र को ही संसार का कारण माना है । सो ठीक नहीं है। क्योंकि मिथ्याज्ञान का अभाव हो जाने पर भी राग आदि दोषों का अभाव न होने से संसार का अभाव नहीं होता है। यह बात स्वयं सांख्यों ने भी मान ली है। हम जैनों को मान्य संसार के कारण आगम में प्रसिद्ध है "मिथयादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगा बंधहेतवः" मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच बंध के कारण हैं। बंध से ही संसार होता है अत: बंध के कारण ही संसार के कारण माने गये हैं। किन्हीं का कहना है कि संसार के कारण मिथ्यात्व आदि अनादिकालीन हैं अतः ये निर्हेतुक हैं। किन्तु ऐसी बात नहीं है यद्यपि ये संसार के कारण अनादि हैं फिर भी अहेतुक (अकारणक) नहीं हैं। इनके कारण द्रव्य कर्म मौजूद हैं, तथा द्रव्य कर्म के कारण ये भाव कर्म हैं इन दोनों में परस्पर में कार्य-कारणभाव पाया जाता है। इसीलिये इन मिथ्यात्व आदि कारणों को सम्यग्दर्शन आदि कारणों से विनाश भी हो सकता है अन्यथा नितक का विनाश होना असम्भव ही हो जाता। इस प्रकार से आप अर्हन्त भगवान् के शासन में मोक्ष और मोक्ष के कारण तथा संसार और संसार के कारण ये चार तत्त्व अबाधित रूप से सिद्ध हैं अतः आपके वचन यूक्ति और शास्त्र से अविरोधी सिद्ध हैं और इसीलिये आप निर्दोष परमात्मा हैं यह बात सिद्ध हो जाती है । इस तरह छह कारिकायें मात्र अष्टसहस्री के प्रथम भाग में आई हैं । यहाँ तक उन छह कारिकाओं का अभिप्राय है। आगे सातवीं कारिका से लेकर तेईस कारिका तक प्रथम परिच्छेद है जो कि द्वितीयभाग में लिया गया है। अष्टसहस्त्री ग्रन्थराज का महत्त्व इस अष्टसहस्री ग्रन्थ में श्री समंतभद्राचार्य ने दश अध्यायों में मुख्यरूप से दश प्रकार के एकांत का निरसन करके स्याद्वाद की सप्तभंगी प्रक्रिया को घटित किया है। उन एक-एक परिच्छेद में मुख्य-मुख्य एकांतों के खण्डन में . उभयकात्म्य तथा अवाच्य का खण्डन करते हये "विरोधात्लोभयकात्म्यं" स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकांतेऽप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते ।। इस कारिका को प्रत्येक अध्याय में लिया है अतः यह कारिका दस बार आ गई है। प्रथम अध्याय में मुख्यता से भावैकांत अभावकांत का खंडन है पुनः उभयकात्म्य का खंडन एवं अवाच्य का खण्डन करते हये "विरोधान्नोभयकात्म्य" इत्यादि कारिका दी गई है। पुनः कथंचित् भाव और कथंचित् अभाव को सिद्ध करके सप्तमंगी प्रक्रिया घटित की है तथा इस भाव अभाव के खण्डन में अनेक अन हैं। द्वितीय अध्याय में एकत्व पृथक्त्व को एकांत से न मानकर प्रत्येक वस्तु कथंचित् एकत्व-पृथक्त्वरूप ही है यह प्रगट किया है । तृतीय परिच्छेद में नित्यानित्य को दिखाया है। चतुर्थ में भेदाभेदात्मक वस्तु को बताया है, पांचवें में कथंचित् आपेक्षिक अनापेक्षिकरूप वस्तु को सिद्ध किया है । पुनः छठे में हेतुवाद और आगम को स्याद्वाद से सिद्ध करके सातवें में अन्तस्तत्त्व-बहिस्तत्त्व का अनेकांत बताया है। आठवें में दैव-पुरुषार्थ को स्याद्वाद से प्रगट करके नवमें में पुण्य-पाप का अनेकांत उद्योतित किया है। दसवें में ज्ञान-अज्ञान से मोक्ष और बन्ध की व्यवस्था को प्रकाशित किया है तथा स्याद्वाद और नयों का उत्तम रीति से वर्णन किया है। तात्पर्य यही है कि इस अष्टसहस्री ग्रन्थ में जिस रीति से स्याद्वाद का वर्णन प्रत्येक स्थान पर किया गया है वैसा वर्णन अन्यत्र न्याय ग्रन्थों में कहीं पर भी नहीं है। प्रत्येक अध्याय में सप्तभंगी प्रक्रिया बहुत ही अच्छी मालूम पड़ती है । अन्त में आचार्य ने यह बताया है कि मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों के लिये यह आप्त मीमांसा-सर्वज्ञ विशेष की परीक्षा की गई है। क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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