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प्राप्ति के कारणभूत रत्नत्रय भी हितरूप माना गया है अतः के लिये वह आप्त मीमांसा प्रधान ग्रन्थ है क्योंकि सत्य-असत्य हो जाने के बाद ही यह जीव असत्य को छोड़कर सत्य मार्ग का या आर्हत्य लक्ष्मी की प्राप्ति पर्यंत स्वार्थ संपत्ति को सिद्ध गये आप्त ही मोक्ष मार्ग के प्रणेता कर्मभूभृद् भेत्ता और आप्त हैं उन्हीं के गुणों को प्राप्त करने के लिये उन्हें ही
और उसकी कराने
मुख्यरूप से मोक्ष ही हितरूप है सम्यक्त्य और मिथ्यात्व विशेष का ज्ञान तत्व का एवं आप्त का पूर्णतया निर्णय सत्य-आप्त का आश्रय लेता है । अतः यह अष्टसहस्री ग्रन्थ करने वाली है इसलिये शास्त्र की आदि में स्तुति किये विश्व तत्त्वों के ज्ञाता सिद्ध हुये अहंत भगवान् ही निर्दोष नमस्कार करना उचित है अन्य को नहीं। यही कारण है कि
श्रोतव्याष्टसहस्त्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानं
विज्ञायेत ययैव स्वसमयपरसमयसद्भावः ॥
स्वयं श्री विद्यानन्द आचार्यवर्य ऐसा कहते हैं कि एक अष्टसहस्री ग्रन्थ को ही सुनना चाहिये अन्य हजारों ग्रन्थों के सुनने से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि इस एक ग्रन्थ के द्वारा ही स्वसमय अपने स्याद्वाद जैन सिद्धांत और परसमय — पर परिकल्पित अनेक एकांत तत्त्वों को समझ नहीं लेंगे तब तक हम अपना सिद्धान्त भी अत्यंत सूक्ष्मतया स्याद्वाद की कसौटी पर कस नहीं सकेंगे और जब तक सप्तभंगी स्याद्वाद प्रक्रिया से हम अपने तत्त्वों को नहीं समझ लेंगे तब तक एकांतवाद के किसी प्रवाह में बहने का डर बना ही रहेगा।
आगम और तर्क दोनों की कसौटी पर कसा गया तत्व ही शुद्ध सत्य सिद्ध होता है अन्यथा नहीं । केवल सिद्धांत अथवा केवल अध्यात्म रूप आगम से जाना गया तत्व कदाचित् बेमालूम ही एकांत के गड्ढे में डाल सकता है किन्तु आगम और तर्क दोनों के द्वारा समझा गया तत्त्व सम्यक् श्रद्धान से कथमपि च्युत नहीं कर सकता । श्री समंतभद्राचार्यवर्य ने अपनी रचनाओं को भगवान् की स्तुति का रूप देते हुए प्रोतया न्याय के ग्रन्थ रूप बना दिया है यह विशेषता केवल एक समंतभद्रस्वामी में ही थी कि न्यायपूर्ण शब्दों के द्वारा निर्भीकतया भगवान् के साथ भी वार्तालाप करते हुये उन्हीं सर्वज्ञ भगवान् की भी परीक्षा करने का साहस कर डाला है सो ठीक ही है। क्योंकि जब उन्होंने स्वयंभूस्तोत्र की रचना के द्वारा शिवपिडी से भगवान् चन्द्रप्रभु को ही प्रगट कर लिया था तब उनका इस पद्धति से भगवान् को ही न्याय की कसौटी पर कस देना कोई बड़ी बात नहीं है। सचमुच में यह कोई साधारण व्यक्ति का काम नहीं कि भगवान् की परीक्षा शुरू कर देवे श्री समंतभद्र जैसे महान् मुनि पुंगवों का ही काम है। इस ग्रन्थ में भगवान् को ही निर्दोष आप्त सिद्ध करके अन्त में यह बतलाया है कि
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इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छतां सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ॥ ११४ ॥
अर्थात् यह आप्त की मीमांसा- परीक्षा हित-मोक्ष सुख की इच्छा करने वाले भव्यपुरुषों के लिये ही की गई है क्योंकि सम्यक् और मिथ्या उपदेश विशेष की जानकारी होने से मिथ्यात्व का त्याग और सम्यक्त्व का ग्रहण शक्य है अन्यथा नहीं ।
अपने जैन सिद्धांत के ही एक-एक कमरूप एक-एक अंश को लेकर मिथ्यावादी जनहठाग्रही बन जाते हैं वे अपेक्षाबाद - कथंचिद्वादरूप सिद्धांत को नहीं समझ पाते हैं। एक-एक के आग्रह से ही नित्येकांतवादी, क्षणिकैकांतबादी बन जाते हैं । जैसे सूक्ष्मऋजुसूत्र नय से हमारे यहाँ प्रत्येक वस्तु अर्थपर्यायरूप से प्रतिक्षण होने वाली अर्थ - पर्याय एक समयवर्ती क्षणिक हैं किन्तु यह नय अन्य नयों से सापेक्ष होने से ही सम्यक् नय है । यदि वह अन्य नयों की अपेक्षा न करे तो मिथ्या नय है इसी एक नय के हठाग्रही बौद्धजन है जिन्होंने अपना क्षणिकसिद्धान्त ही बना लिया है इत्यादि। इन सब एकांतों का खण्डन करके यह अष्टसहस्री ग्रन्थ अपने स्याद्वाद को पद-पद पर पुष्ट करता है।
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