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________________ ( २२ ) जैनाचार्य-पहले यह बताओ कि मुक्त जीव के इन्द्रियों का अभाव है इसलिये बाह्य पदार्थ का ज्ञान नहीं है या बाह्य पदार्थ का अभाव है इसलिये उनका ज्ञान नहीं है ? यदि बाह्य पदार्थ का अभाव हो तो सुख का भी अभाव हो जायेगा क्योंकि आप अद्वैत वादियों ने सुख को भी बाह्य पदार्थ ही माना है। यदि इन्द्रिय का अभाव कहो तब तो उन्हें सुख का भी अनुभव कैसे होगा? बौद्ध-आस्रवरहित चित्तसंतति की उत्पत्ति ही मोक्ष है। जैनाचार्य-यह भी ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञान क्षणों में अन्वय पाया जाता है। तथा निरन्वय क्षणक्षय (अन्वयरहित क्षण-क्षण में क्षय होने की व्यवस्था) को एकान्त से स्वीकार करने पर आपके द्वारा मान्य मोक्ष की सिद्धि बाधित ही है। इस प्रकार से अन्यमतावलंबियों द्वारा मान्य मोक्ष तत्त्व में बाधा आती है अत: जैनों द्वारा मान्य 'कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः' संपूर्ण कर्मों का आत्मा से पृथक् हो जाना मोक्ष है वहाँ पर अनंत गुणों की सिद्धि हो जाती है। मोक्ष के कारण की समीक्षा सांख्य ज्ञानमात्र को ही मोक्ष का कारण मानते हैं। सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञ भगवान के क्षायिक अनंतज्ञान की पूर्णता हो जाने पर भी अघातिया कर्मों के शेष रहने से उनका परमौदारिक शरीर पाया जाता हैं : यदि ज्ञान उत्पन्न होते ही मोक्ष हो जावे तो यहाँ पर सर्वज्ञ का रहना, उपदेश आदि देना नहीं घटेगा । तथा यदि एकांत से ज्ञान को ही मोक्ष का कारण मान लिया जावे तो सभी के आगम में दीक्षा यदि बाह्य चारित्र का अनुष्ठान एवं सकल दोषों के अभावरूप अभ्यन्तर चारित्र का जो वर्णन है वह सब व्यर्थ हो जायेगा । किन्तु सभी ने तो दीक्षा ग्रहण, गेरुआ वस्त्र धारण और ध्यान आदि को माना ही है । ऐसे ही कोई मात्र सम्यग्दर्शन से या कोई-कोई मात्र चारित्र से-क्रियाकांड से ही मुक्ति मानते हैं। उन सबकी मान्यता गलत है। हम जनों ने तो 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इस आगम सूत्र के सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता को ही मोक्ष माना है और यही मान्यता सुसंगत है इसलिये जैनाचार्य द्वारा मान्य मोक्ष के कारण तत्त्व ठीक ही हैं। कोई मोक्ष को अकारणक ही कहते हैं किंतु यह मान्यता बिल्कुल गलत है क्योंकि अनिमित्तक मोक्ष होने से तो हमेशा ही सभी जीवों को मोक्ष हो जावेगी, पुन: कोई संसारी और दु:खी रहेगा ही नहीं। किन्तु ऐसा तो प्रत्यक्ष से ही बाधित है । संसार की समीक्षा सांख्य कहता है कि प्रकृति-जड़ को ही संसार है आत्मा को नहीं हैं, किन्तु ऐसी एकांत मान्यता गलत है । हम देखते हैं कि जड के संसर्ग से यह संसारी आत्मा संसार में जन्म, मरण आदि अनेकों दुःखों को उठा रही है। 'संसरणं संसार:' संसरण करना-एक गति से दूसरी गति में गमन करना इसी का नाम संसार है। इसके पंच परिवर्तन की अपेक्षा पाँच भेद हैं-द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार, भवसंसार और भावसंसार । इन का विवेचन सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में देखना चाहिये, इसलिये संसार तत्त्व भी सिद्ध ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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