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________________ भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद [ १७१ के व्यापार रूप है इसे ही अर्थ भावना कहते हैं, शब्द का व्यापार भावना है वह पुरुष के व्यापार को कराती है अतः वह भावना ही वेदवाक्य का विषय है। . इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि-यदि शब्द का व्यापार ही शब्द भावना है तो शब्द से उसका व्यापार भिन्न है या अभिन्न ? यदि अभिन्न है तो वाच्य कैसे होगा? एक अनंश में वाच्य-वाचक भाव संभव नहीं हैं यदि कहो कि शब्द अपने स्वरूप को भी श्रोत्रेन्द्रिय से बता देता है जैसे कि वह अपने व्यापार से बाह्य पदार्थ को बताता है तब तो रूपादि भी अपने विषय को बताने वाले होने से भावना बन जावेंगे। यदि शब्द से उसका व्यापार भिन्न मानों तो शब्द के साथ उसका सम्बन्ध कैसे होगा? एवं पुरुष व्यापार लक्षण अर्थ भावना भी मानना ठीक नहीं है अन्यथा “नियुक्तोऽहमनेन वाक्येन" इस प्रकार से नियोग वेदवाक्य का अर्थ सिद्ध हो जावेगा वह भी पुरुष के व्यापार रूप है। यदि आप कहो "सकल यज्यादि क्रिया विशेष" में व्यापी "करोति" सामान्य नित्य है वही शब्द का अर्थ है। क्योंकि "नित्याः शब्दार्थसम्बन्धाः" ऐसा वाक्य पाया जाता है किन्तु यज्यादि किया विशेष वेद के अर्थ नहीं हैं क्योंकि वे अनित्य हैं। यदि ऐसा कहो तब तो भवन क्रिया रूप सत्ता सामान्य भी वेदवाक्य का अर्थ हो जावे क्योंकि वह तो करोति क्रिया में भी व्यापक है वह महा क्रिया सामान्य है क्योंकि “पचति, पाचको भवति" इत्यादि से भवति क्रिया ही सर्वव्यापक है। भाटट-निर्व्यापार, निष्क्रिय वस्तु में भी 'भवति' क्रिया का अर्थ देखा जाता है इसलिए वह . क्रिया स्वभाव नहीं है, अन्यथा निष्क्रिय गुणादिकों में सत्त्व का अभाव हो जावेगा। ___ जैन-यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि परिस्पंदात्मक व्यापार से रहित में भी करोति क्रिया का अर्थ विद्यमान है 'तिष्ठति, स्थानं करोति' ऐसी प्रतीति आती है अत: करोति क्रिया सामान्य, नित्य, निरंश, एक और सर्वगत है यह बात असंभव है, आप कहें कि 'करोतिसामान्य' नित्य है क्योंकि उसका प्रत्यभिज्ञान देखा जाता है। किन्तु यह प्रत्यभिज्ञान हेतु तो कथंचित् नित्य को ही सिद्ध करता है सर्वथा नित्य को नहीं, एवं करोतिसामान्य एक न होकर अनेक है क्योंकि वह 'करोति' अर्थ व्यक्ति-व्यक्ति के प्रति व्याप्त होने से अनेक हैं। अनंश भी नहीं है क्योंकि अंश सहित रूप प्रतीति है तथा सर्वगत भी नहीं है क्योंकि व्यक्ति-व्यक्ति के अंतरालों में दिखता नहीं है। अतः आप भाट्ट के द्वारा स्वीकृत नित्य, निरंश, एक सर्वगत स्वभाव रूप 'करोतिसामान्य' हो नहीं सकता जो कि सम्पूर्ण यज्यादि क्रियाओं में व्यापी कर्ता के व्यापार रूप 'भावना' इस नाम को प्राप्त कर सके और वेदवाक्य का अर्थ हो सके अर्थात् नहीं हो सकता है । अतः भावनावादी को मान्यता भो श्रेयस्कर नहीं है। 卐--卐 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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