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अष्टसहस्री
[ कारिका ३
है यदि दोनों का सर्वथा तादात्म्य होगा तब तो एक विशेष रूप व्यक्ति के नष्ट होने पर सामान्य भी नष्ट हो जावेगा पुनः वह सामान्य असाधारण नहीं रहेगा। आप भाट्ट भी नैयायिक के समान ही सामान्य को एक, निरंश, नित्य और सर्वगत स्वीकार करते हो तब तो सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि आपका निरंश सामान्य कहीं जा नहीं सकता। पहले के पकड़े हुए विशेष अंश को छोड़ता नहीं, कहीं से आता नहीं, पहले से रहता नहीं, ऐसा विचित्र सामान्य क्या वस्तु है ? समझ में नहीं आता है। यहाँ मध्य में ही उद्योतकर नामक आचार्य कहते हैं कि गायों में गोत्व ज्ञान गोपिंड से न होकर किसी भिन्न ही नित्य, सर्वगत सामान्य से होता है। यह गोत्वादि सामान्य गायों से भिन्न ही है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि यह मान्यता बिल्कुल गलत है देखो ! अनेक गायों में गोत्व सामान्य ज्ञान सदश परिणाम निमित्तक ही है । वह गायों से भिन्न नहीं है क्योंकि सामान्य और विशेष दोनों ही धर्म वस्तु में ही पाये जाते हैं । वृक्षों में वृक्षत्व सामान्य है वह अनंत वृक्षों में व्याप्त है एवं आम, नीम, अशोक आदि विशेष धर्म हैं वे विशेष धर्म एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष को पृथक् करा देते हैं अन्यथा अशोक की छाल लेकर औषधि बनाने वाला व्यक्ति आम की छाल को ले आवेगा, किन्तु ऐसा है नहीं । अतः सामान्य विशेष एक तादात्म्य रूप भी नहीं हैं। इसका और विशेष स्पष्टीकरण “प्रमेयकमल मार्तंड' से समझ लेना चाहिये। निष्कर्ष यह निकला कि भाट्टों के द्वारा मान्य "करोतिसामान्य" अनित्य, अनेक, असर्वगत और सांश-अवयवों से सहित है। जैसे कि यजन, पचन आदि विशेष उसी भाट्ट के द्वारा मान्य अनित्य, अनेक, असर्वगत, अंश सहित हैं उसी प्रकार से करोति सामान्य भी एक आदि रूप सिद्ध न होने से वेदवाक्य का अर्थ नहीं है। जिसको आप भावनावाद के नाम से स्वीकार करते हैं वह आपका सिद्धांत सिद्ध नहीं होता है।
भावनावाद के खण्डन का सारांश भावनावादी भाट्ट कहते हैं कि सर्वत्र भावना ही वेदवाक्य का अर्थ प्रतीति में आ रहा है भावना के २ भेद हैं-शब्द भावना और अर्थ भावना। शब्द के व्यापार को शब्द भावना कहते हैं "अग्निष्टोमेन" इत्यादि के द्वारा पुरुष का व्यापार होता है। उस पुरुष के व्यापार से धातु का अर्थ सिद्ध होता है और उससे फल होता है अर्थात् पुरुष के व्यापार में शब्द का व्यापार है तथा धात्वर्थ में पुरुष का व्यापार है वही भावना है, धातु का शुद्ध अर्थ भावना नहीं है अन्यथा विधि ही अर्थ हो जावेगा।
क्योंकि "धात्वर्थः केवलः शुद्धो भावः इत्यभिधीयते" सत्ता को धातु अर्थ कहने पर वह सत्ता ही परब्रह्म स्वरूप है नियोगवादी ने इस विधिवाद का खण्डन कर ही दिया है अतः वह सन्मात्र अर्थ प्रतीति में नहीं आता है। किन्तु सकलव्यापिनी "करोति" क्रिया लक्षण वाली क्रिया सभी धातुओं में संभव है वही सर्वव्यापिनी क्रिया भावना है "पचति, पपाच, पक्ष्यति" इन क्रियाओं में भी 'पाकं करोति' इत्यादि अर्थ ही व्याप्त है अतः "करोति' क्रिया का अर्थ ही वेदवाक्य का अर्थ है । वह "करोति" क्रिया का अर्थ सामान्य रूप है और यज्यादि उसके विशेष रूप हैं यह सामान्य क्रिया कर्ता
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