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भावनावाद ]
प्रथम परिच्छेद
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एक ही इन्द्रिय से जाने जाते हैं अतः इनमें अभेद है । सामान्य काल्पनिक-संवृत्ति सत्य है, अनुमानका विषय है, आरोपित धर्म मात्र है और विशेष वास्तविक है, निर्विकल्प बुद्धि में झलकता है, वह क्षणवर्ती पर्यायमात्र है।
इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि यदि एक इन्द्रिय से गम्य होने से सामान्य और विशेष में अभेद मानोगे तब तो वायु और आतप भी एक स्पर्शन इन्द्रिय से गम्य हैं इन्हें भी एक ही मानो। देखो! दूर से वस्तु का सामान्य धर्म ही झलकता है। किसी पुरुष या स्थाणु विशेष को दूर से देखने पर उसकी ऊँचाई मात्र से सामान्य ही झलकता है। विशेष रूप वक्र कोटर आदि या शिर, हाथ, पैर आदि नहीं झलकते हैं। वैसे ही निकट में भी “यह भी गो है, यह भी गो है" । इस प्रकार से ५० गायों में भी एक गोत्व सामान्य दिख रहा है । सभी गायों में या सभी पुस्तकों में गोत्व या पुस्तकत्व सामान्य रूप से जो अन्वय ज्ञान है वह सामान्य के बिना नहीं हो सकता है । उसी प्रकार से यह राजवातिक है, श्लोकवार्तिक या अष्टसहस्री नहीं है, यह व्यावृत्त ज्ञान भी विशेष धर्म को माने बिना असंभव है। निर्विकल्प प्रत्यक्ष में विशेष मात्र झलकता है यह बात प्रतीति विरुद्ध है। क्योंकि न निर्विकल्प ज्ञान ही सिद्ध है
और न एक क्षणवर्ती पर्याय रूप आप बौद्धों का माना हुआ विशेष ही सिद्ध है। किन्तु सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही ज्ञान का विषय है ।
नैयायिकों के द्वारा मान्य सामान्य नित्य एवं सर्वगत है तथा निरंश है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि पहली बात तो यह है कि सर्वथा नित्य सामान्य में अर्थक्रिया असंभव है । दूसरी बात यह है कि यदि सामान्य सर्वगत है तो व्यक्ति-व्यक्ति-विशेष-विशेष में पृथक्-पृथक् कैसे रहेगा ? वह सामान्य तो उन अंतरालों में भी दीखना चाहिए। तथा यदि वह सामान्य एक है तो एक गो के मर जाने पर उसका गोत्व सामान्य कहाँ जावेगा, क्या नष्ट हो जावेगा? अनेक आपत्तियाँ आ जावेंगी । यदि सामान्य सर्वगत है तो अकेला ही सर्वत्र अन्वय रूप अपना ज्ञान करायेगा अथवा व्यक्ति कर सहित होकर करावेगा? यदि अकेला ही करायेगा तो व्यक्तियों के अंतराल में भी "गो है, गो है" ऐसा अनुगत ज्ञान होना चाहिए। यदि व्यक्ति सहित सामान्य, अन्वय ज्ञान करायेगा तब तो सभी व्यक्तियों को जान लेने पर उनका ज्ञान करायेगा या बिना जाने हो ? यदि जान कर कहो तो असंभव है क्योंकि असर्वज्ञ जनों को संपूर्ण अनंत विशेषों का ज्ञान होना शक्य हो नहीं है । यदि बिना जाने कहो तो एक व्यक्ति को जानते ही उसमें “यह गाय है, यह गाय है" ऐसा अन्वय होना चाहिये किन्तु होता नहीं है। जब गोत्व एक है तब एक गाय में तो हो और बीच में न होकर दूर खड़ी हुई दूसरी गाय में भी हो, इस प्रकार अनेकों गायों में अंतरालों को छोड़कर वह गोत्व सामान्य होवे फिर भी एक ही माना जावे यह बात असंभव है । अतः एक अकेला सामान्य सर्वगत है निष्क्रिय है। पुनः एक को छोड़कर जब दूसरे में जाने लगेगा तो पहली गो सामान्य रहित हो जावेगी तथा वह सामान्य निष्क्रिय न होकर क्रियाशील हो जावेगा । इसलिए नैयायिक का सामान्य एक, सर्वगत, नित्य और निष्क्रिय रूप सिद्ध नहीं होता है।
मीमांसक भाट्ट सामान्य-विशेष में सर्वथा तादात्म्य मानते हैं किन्तु यह मान्यता भी असंभव
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