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भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद
_[ १६७ ततो न मीमांसकाभ्युपगतस्वभावं करोतिसामान्यमुपपद्यते यत्सकलयज्यादिक्रियाविशेषव्यापिकर्तृव्यापाररूपभावनाख्यां प्रतिपद्यमानं वाक्येन' विषयीक्रियेत । प्रतिनियतक्रियागतस्य तु करोतिसामान्यस्य शब्दविषयत्वे यज्यादिसामान्यस्य' कथं तद्विनिवार्येत; येन तदपि वाक्यार्थो न स्यात् । तदेवं भावना वाक्यार्थसम्प्रदायो न श्रेयान्, बाधकसद्भावानियोगादिवाक्यार्थसम्प्रदायवत् । भिन्न ही है । इस पर भाट्ट ने कहा कि विसदश परिणाम तो पर की अपेक्षा रखता है किन्तु सदृश परिणाम रूप सामान्य पर की अपेक्षा नहीं रखता है। आचार्य कहते हैं कि सदृश परिणाम भी पर की अपेक्षा के बिना असम्भव है। सदृश शब्द के कहते ही 'यह इसके सदृश हैं' इस प्रकार से बिना अपेक्षा के सदृश परिणाम भी कहाँ रहा ?
____ आगे चलकर जैनाचार्य ने एकत्व के दो भेद कर दिये हैं एक मुख्य दूसरा उपचरित । यह वही आत्मा है जो नरक पर्याय, देव पर्याय आदि में थी, यह एकत्व मुख्य है। एवं जैसे चितकबरी गाय में गोत्व सामान्य है वैसे ही श्वेत गाय में भी है यह उपचरित एकत्व है। इस प्रकार से करोतिसामान्य को सर्वगत मानने में अनेक दोष आ जाते हैं ।
__ इसलिए मीमांसक के द्वारा स्वीकृत यह 'करोतिसामान्य' नित्य, निरंश, एक और सर्वगत स्वभाव रूप हो नहीं सकता है, जो कि संपूर्ण यज्यादि क्रिया विशेषों में व्यापी कर्ता के व्यापार रूप 'भावना' इस नाम को प्राप्त करते हुए वेदवाक्य के द्वारा विषय किया जा सके । अर्थात् ऐसी भावना वेदवाक्य का विषय नहीं हो सकता प्रतिनियत क्रिया में रहने वाले करोतिसामान्य को शब्द का विषय मानने पर तो यज्यादि सामान्य को भी आप शब्द का विषय क्यों नहीं मानते हैं-उसका निवारण क्यों करते हैं, जिससे कि वह यजन सामान्य भी वेदवाक्य का अर्थ न हो सके । अर्थात् है ही है। इसलिए 'भावना' वेदवाक्य का अर्थ है ऐसा भावनावादी भाट का संप्रदाय श्रेयस्कर नहीं है। क्योंकि नियोग, विधि आदि रूप से वेदवाक्य का अर्थ करने पर जैसे बाधायें आती हैं वैसे ही इस भावनावाद में भी अनेक बाधायें आ जाती हैं
विशेषार्थ -- जगत के संपूर्ण पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक होते हैं। और ऐसे ही पदार्थों को प्रमाण जानता है। प्रत्येक वस्तु सामान्य विशेषात्मक ही है इस बात को सिद्ध करने के लिए समर्थ हेतु उपस्थित है।
___"अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात्, पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनार्थ क्रियोपपत्तेश्च । २॥
"यह वही है" ऐसे ज्ञान को अनुवृत्त प्रत्यय कहते हैं “यह वह नहीं है" ऐसे ज्ञान को व्यावृत्त प्रत्यय कहते हैं।
1 नित्यनिरंशैकसर्वगतस्वभावम् । 2 यदिति काकुः। 3 वेदवाक्येन। 4 वाक्यार्थः कथं स्यात् । (ब्या० प्र०) 5 करोतिक्रियाविशेषगतस्य स्वव्यक्तिसर्वगतस्येत्यर्थः। 6 वाक्यार्थत्वे। (ब्या०प्र०) 7 देवयजनगुरूयजनदियजनसामान्यस्य। 8 शब्दविषयत्वम् (वाक्यार्थत्वमित्यर्थः)। 9 यजनसामान्यम् । 10 विधि । (ब्या० प्र०)
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