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________________ १६६ ] 'गवादिमात्रव्यवहारकारणं भाट्ट - वास्तविक गवय के सदृश मिट्टी की गाय में गोत्व सादृश्य - सामान्य मौजूद है वहाँ भी गोत्व जाति का प्रसंग आ जावेगा । ह तदेकजातित्वनिबन्धनमनुरुध्यते' एव [ कारिका ३ सत्त्वादिसादृश्यवत् । जैन - ऐसा नहीं कहना। क्योंकि वास्तविक गवय व्यवहार का हेतु सादृश्य सामान्य वहाँमिट्टी की गाय में नहीं है यदि वह वहाँ है तो उसे सत्य मानना पड़ेगा । स्थापना रूप गो आदि में भाव – वास्तविक गो आदि के द्वारा जो सादृश्य मात्र सामान्य है वह लांगूल पूंछ, ककुद विषाणादि रूप, गवादिमात्र से व्यवहार का कारण है इसलिए उसमें एक जातित्व कारण जैनियों ने माना ही है जैसे सत्त्वादि सामान्य । भावार्थ-भाट्ट "करोति सामान्य" को सर्वगत मानता है, किन्तु आचार्य उसकी मान्यता का निराकरण करते हुए कहते हैं कि जो विशेष - व्यक्ति रूप संख्यातों क्रियायें हैं जैसे- भुंक्ते, भुनक्ति, गच्छति, यजते, पचति आदि । खाता है, भोगता है, जाता है, यज्ञ करता है, पकाता है इत्यादि क्रियाओं में करोति, सामान्य व्याप्त है । आप भाट्ट की मान्यता के अनुसार "करता है" यह करोतिसामान्य तो नित्य है और यज्ञ करता है इत्यादि विशेष क्रियायें अनित्य हैं जब अनित्य क्रियायें नष्ट होती हैं या उत्पन्न होती हैं तब यह " करता है" यह सामान्य उनके साथ विनष्ट या उत्पन्न होता है या नहीं ? एवं गच्छति, पचति आदि क्रियाओं के अंतराल में भी करोतिसामान्य दिखता नहीं है जैसे कि आप उसे सर्वगत मानकर अंतराल में भी उसका अस्तित्व मान रहे हैं । इस पर भाट्ट ने कहा कि वह अन्तरालों में अप्रगट है । तब जैनाचार्य ने कहा कि वैसे हो भिन्न-भिन्न क्रियाओं का भी अंतरालों में अप्रगट रूप से अस्तित्व मानकर उन विशेषों को भी सर्वगत मान लो क्या बाधा है ? तब भाट्ट ने कहा कि विशेषों को सर्वगत मानकर उन्हें अंतरालों में सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है । इस पर जैनाचार्यों ने पूछा कि करोतिसामान्य को अंतरालों में सिद्ध करने वाला प्रमाण भी कहाँ है ? इस प्रश्न पर तुरन्त ही उस भाट्ट ने अनुमान प्रमाण को उपस्थित कर दिया । यह 'करोतिसामान्य' गमन करता है, भोजन करता है, यज्ञ करता है, इत्यादि विशेषों में भी व्याप्त है और इनके अंतरालों में भी व्याप्त है, क्योंकि एक साथ यह करोति सामान्य भिन्न-भिन्न देश में और अपने आधार में 'करता है' इस प्रकार से एक रूप ही है, जैसे कि स्थूण आदि में बाँसादि । इस अनुमान से " करोतिसामान्य" सर्वत्र व्याप्त है । इस पर जैनाचार्य बोले कि आपका हेतु हम जैनों को असिद्ध है । क्योंकि भिन्न-भिन्न क्रियाओं के प्रति होता हुआ सदृश परिणाम रूप सामान्य पृथक् पृथक् है जैसे कि विसदृश परिणाम लक्षण विशेष सभी के भिन्न-भिन्न ही हैं । देखिये ! जैसे "यजते" क्रिया से भिन्न गच्छति क्रिया का विशेष है वैसे ही दोनों क्रियाओं का करोति सामान्य यद्यपि सदृश परिणाम वाला है फिर भी भिन्न Jain Education International 1 लाङ्गलककुदविषाणादिरूपेण । 2 तेन भावगवादिका जातिर्यस्य स्थापनागवादेस्तस्य भावस्तदेकजातित्वम् तस्य निबन्धनम् । 3 (जैनैरनुगृह्यते) भावगव्यपि मृन्मयेन सह सत्त्वसादृश्यं यथास्ति । ( व्या० प्र० ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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