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भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद
। १६५ [ एकत्वं द्विधा मुख्यमुपचरितं चेति विभज्य स्पष्टीकरणं कुर्वन्ति जैनाचार्याः ] द्विविधं ह्य कत्वं मुख्यमुपचरितं चेति । मुख्यमात्मादिद्रव्ये' । सादृश्ये तूपचरितमिति । मुख्ये तु तत्रैकत्वे तेन समानोयमिति प्रत्ययः कथमुपपद्यत ? 'तयोरेक'सामान्ययोगादिति चेन्न—सामान्यवन्तावेतावितिप्रत्ययप्रसङ्गात् । अभेदोपचारे'1 तु सामान्यतद्वतोः 12सामान्यमिति प्रत्ययः स्यात् । न तेन समानोयमिति । यष्टिसहचरितः पुरुषो यष्टिरिति यथा, यष्टिपुरुषयोरभेदोपचारात् । 15मृन्मये गवि सत्यगवयसदृशे गोसादृश्यस्य सामान्यस्य भावाद्गोत्वजातिप्रसङ्ग इति "चेन्न, "सत्यगवयव्यवहारहेतो:18 सादृश्यस्य तत्राभावात् तद्भावे तस्य सत्यत्वप्रसङ्गात् । 20भावगवादिभिः। स्थापनागवादे:22 सादृश्यमानं तु
जैन-इसमें भी एकत्व का उपचार होने से “यह वही है" ऐसा ज्ञान होजाता है अर्थात् सबल के सदृश धवल गाय है इस प्रकार से एकत्व का उपचार हो जाता है । एकत्व के दो भेद हैं-मुख्य और उपचरित।
आत्मा आदि द्रव्यों में तो मुख्य एकत्व होता है जैसे कि जो आत्मा नरक पर्याय में था यह वही आत्मा मनुष्य पर्याय में दिख रहा है। जो आत्मा बचपन में था वही इस जवानी और बुढ़ापे में है इत्यादि में मुख्य एकत्व ज्ञान है। और सादृश्य वस्तु में उपचरित एकत्व होता है जैसे कि काटने के बाद पुनः उत्पन्न हुये नख और केश । किन्तु वहाँ मुख्य गोत्व लक्षण एकत्व में उस गो के समान यह गौ है ऐसा ज्ञान कैसे हो सकेगा ?
भाट्ट-उस श्वेत और चितकबरे में गोत्व लक्षण एक सामान्य का योग होने से वहाँ वैसा ज्ञान होता है।
जैन-ऐसा नहीं कहना । अन्यथा ये दोनों सामान्यवान् हैं ऐसा ज्ञान हो जावेगा। पुन: यह उसके समान है ऐसा ज्ञान नहीं हो सकेगा और अभेदोपचार के स्वीकार करने पर तो सामान्य और सामान्यवान् में “यह सामान्य है" ऐसा ज्ञान हो जावेगा। किन्तु यह उसके समान-सदृश है ऐसा नहीं हो सकेगा। जैसे यष्टि से सहचरित परुष को यष्टि कह देते हैं क्योंकि वहाँ यष्टि और पुरुष में अभेद का उपचार किया गया है। किंतु यह पूरुष यष्टि के समान है ऐसा ज्ञान तो नहीं होता है।
1 यो नारकपर्यायः स एवायं मनुष्यपर्याय आत्मा। (न्या० प्र०) 2 मुख्य गोत्वलक्षणे इत्यर्थः । तत्र = शवलधवलयोः । 3 गवा। 4 यधुपचरितं न भवेत् । (ब्या० प्र०) 5 स एवायं प्रत्ययो घटात् यतः। (ब्या० प्र०) 6 परः (शवलधवलयोः)। 7 एकं गोत्वमित्यर्थः। 8 जन आह। 9 यथा द्वौ पुरुषौ एकराज्ययोगादेकराज्यवंतो। (ब्या० प्र०) 10 न तु तेन समानोयमिति प्रत्ययः स्यात् । 11 (जैनः प्राह) अङ्गीक्रियमाणे । 12 शवलधवलयोः । (ब्या० प्र०) 13 स प्रत्ययः इति पा० । (ब्या० प्र०) 14 न यष्ट्या समानः पुरुष इति प्रत्ययो भवति । 15 परः । 16 जनः । 17 चैतन्यदोहनादेः। 18 सत्यगोव्यवहारहेतोः इति वा क्वचित् पाठः । (ब्या० प्र०) 19 मृन्मये। 20 भावः सत्यः। 21 तत्कालपर्यायाक्रांतं वस्तु भावोऽभिधीयते। सह । (ब्या० प्र०) 22 साकारे वा निराकारे काष्ठादी यन्निवेशनम् । सोयमित्यवधानेन स्थापना सा निगद्यते ॥
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