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भावनावाद ]
प्रथम परिच्छेद
णादिवत् । 'व्यक्तयन्तरालेस्ति सामान्यं, युगपद्भिन्नदेश स्वाधारवृत्तित्वे सत्येकत्वाद्वंशादि'वदित्यनुमानात्तत्र तत्सद्भावसिद्धिरिति चेन्न, हेतोः प्रतिवाद्यसिद्धत्वात् । न हि भिन्नदेशासु व्यक्तिषु सामान्यमेकं यथा स्थूणादिषु 'वंशादिरिति प्रतीयते, यतो युगपद्भिन्नदेशस्वाधार वृत्तित्वे सत्येकत्वं तस्य सिध्यत् स्वाधारान्तरालेस्तित्वं साधयेत्, प्रतिव्यक्ति सदृशपरिणामलक्षणस्य सामान्यस्य भेदाद्विसदृशपरिणामलक्षणविशेषवत् । "यथैव हि काचिद्वयक्तिरुपलभ्यमाना 13व्यक्त्यन्तराद्विशिष्टा14 विसदृशपरिणामदर्शनादवतिष्ठते तथा सदृशपरिणामदर्शनात्किञ्चित्केन चित्समानमवसीयते16 इति निर्बाधमेव, तेनायं समानः सोनेन समान इति
भी अंतराल में असत्त्व होने से ही अनुपलब्धि होवे क्या बाधा है ? क्योंकि व्यक्ति के अंतराल में उस सामान्य के भी सद्भाव का आवेदक कोई प्रमाण नहीं है। प्रत्यक्ष से व्यक्ति के अंतराल में सत्त्वरूप का अनुभव नहीं आता है जैसे कि खर विषाणादि का कहों पर अनुभव नहीं आता है।
भाट्ट-व्यक्ति विशेष के अंतराल में भी सामान्य रहता है । क्योंकि युगपत् भिन्न देश और स्वाधार में रहने में एक रूप है, बांसादि के समान" । इस अनुमान से वहाँ उस सामान्य का सद्भाव सिद्ध है।
जैन-नहीं। आपका हेतु प्रतिवादी को असिद्ध है। क्योंकि भिन्न-भिन्न देश के विशेषों में सामान्य एक है जैसे "स्थूणादि में बांसादि" । ऐसा प्रतीति में नहीं आता है कि जिससे युगपत् भिन्न देश एवं स्वाधार वृत्तित्व के होने पर उस सामान्य में एकत्व हेतु सिद्ध होता हुआ अपने आधार के अंतराल में अस्तित्व को सिद्ध कर सके । अर्थात् नहीं कर सकता है। प्रतिव्यक्ति (विशेष-विशेष के प्रति) सदृश परिणाम लक्षण सामान्य भिन्न-भिन्न है जैसे विसदृश परिणाम लक्षण विशेष प्रत्येक भिन्न-भिन्न वस्तु में भिन्न-भिन्न है ।
जिस प्रकार से कोई घट पटादि लक्षण विशेष उपलब्ध होता हुआ व्यक्त्यंतर-मुकुटलक्षणादि विशेष से भिन्न होता हुआ विसदृश परिणाम के देखने से निश्चित होता है उसी प्रकार से सदृश परिणाम के देखे जाने से कोई वस्तु किसी वस्तु के समान निश्चित की जाती है यह बात बाधा रहित सिद्ध ही है "यह उसके समान है, वह इसके समान है। इस प्रकार से समान ज्ञान देखा जाता है।
1 भाट्टः। 2 सामान्य व्यक्तयन्तरालेस्ति-एकत्वादित्येवास्तु इत्युक्ते देवदत्तेन व्यभिचारस्तत्परिहारार्थ स्वाधारवृत्तित्वविशेषणम् । तथा प्येकविष्टरोपविष्टेन तेनैव व्यभिचारो मा भूदिति भिन्नदेशविशेषणम् । तथापि क्रमेणानेकासनासीनेन तेन व्यभिचार: स्यात् । तत्परिहारार्थ युगपद्विशेषणं कृतमनमाने स्मित् । 3भिन्नदेशश्चासौ स्वाधारश्च । 4 स्थूणादिषु वंशादिवदित्यर्थः। 5 जैनः। 6 सामान्यस्यैकत्वं नाङ्गीक्रियते जैनैः। 7 प्रतीयते यथा। 8 तथापि क्रमशस्तथा वत्तिमता देवदत्तेन व्यभिचारस्ततो युगपदिति विशेषणं । (ब्या० प्र०) 9 हेतुः । 10 सामान्यस्य । 11 एतदेव भावयति । 12 घटपटादिलक्षणा। 13 मकूटादिलक्षणात् । 14 भिन्नाः। 15 वस्तु। 16 निश्चीयते।
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