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अष्टसहस्री
[ कारिका ३नुपलम्भ इति चेत्तत' एव व्यक्तिस्वात्मनोपि' तत्रानुपलम्भोस्तु । तस्य तत्र सद्भावावेदकप्रमाणाभावादसत्त्वादेवानुपलम्भ इति चेत् सामान्यस्यापि विशेषाभावादसत्त्वादेवानुपलम्भोस्तु, व्यक्त्यन्तराले तस्यापि सद्भावावेदकप्रमाणाभावात् प्रत्यक्षतस्तथा ननुभवात् खरविषा
के स्मरण और वर्तमान के प्रत्यक्ष इन दोनों के जोड़ रूप में यह प्रत्यभिज्ञान पाया जाता है जैसेजिस करोति क्रिया सामान्य के अर्थ को मैंने यजन आदि क्रिया में पूर्व में देखा था वही इस समय पचन आदि क्रिया में करोति अर्थ पाया जा रहा है। यह प्रत्यभिज्ञान कथचित् नित्यानित्य वस्तु में ही होता है क्योंकि सर्वथा नित्य में कम से या युगपद् अर्थ क्रिया का ही अभाव है। पुन: भाट्ट कहता है कि “करोति" इस प्रकार का ज्ञान सभी जगह समान है अतः यह करोति क्रिया सामान्य एक है जैसेसत् अपने सत् रूप सामान्य ज्ञान से सत्ता सामान्य एक ही है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि हमारे यहाँ "सत सामान्य" भी व्यक्ति-व्यक्ति के प्रति अनन्त भेद रूप है।
जैन सिद्धांत में सत्ता को अनन्त पर्यायात्मक माना है। उसी प्रकार से करोति क्रिया भी व्यक्ति व्यक्ति के प्रति भेद रूप है, जैसे-यागं करोति, पाकं करोति, गमनं करोति । इन सभी करोति क्रियाओं में भिन्न-भिन्न पुरुष की अपेक्षा से भेद स्पष्ट है जो यज्ञ करता है वह पकाता नहीं है और वह गमन नहीं कर रहा है इन तीनों क्रियाओं को करने वाले तीन व्यक्ति पृथक-पृथक् देखे जाते हैं । अतः करोति सामान्य अनेक रूप ही है । उसी प्रकार से वह करोति सामान्य अंश रहित भी नहीं है क्योंकि घट पटादि अवयव सहित पदार्थों में वह करोति सामान्य पाया जाता है तथैव करोति सामान्य सर्वगत भी नहीं है क्योंकि व्यक्ति-व्यक्ति के अंतरालों में दिखता ही नहीं है। इस प्रकार से जैनाचार्य ने करोति सामान्य को अनित्य, अनेक, अंश सहित और असर्वगत सिद्ध कर दिया है।
भाट्ट-उस अंतराल में वह करोति सामान्य अभिव्यक्त नहीं है इसलिए उसकी अंतराल में उपलब्धि नहीं है।
जैन-उसी हेतु से व्यक्ति का स्वरूप भी वहाँ अंतराल में अनुपलब्ध हो जावे पुनः व्यक्तियों को भी सर्वगत मान लो क्या बाधा है ? किन्तु आप तो ऐसा मानने को तैयार नहीं हैं।
भाट्ट-व्यक्ति विशेष के सद्भाव को अंतराल में सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है अतः उसकी अंतराल में अनुपलब्धि है।
जैन-यदि ऐसा मानो तो सामान्य के भी सद्भाव का आवेदक कोई प्रमाण न होने से उसका
1 जैनः । 2 ततश्च व्यक्तीनामपि सर्वगतत्वं समायातम् । न च तथा स्वीक्रियते । 3 सद्भावावेदकप्रमाणाभावस्य । (ब्या० प्र०) 4 व्यक्तयन्तराले सत्त्वरूपेण ।
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