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भावनावाद ]
प्रथम परिच्छेद
इति चेत्तहि ता व्यक्तयः2 सामान्यात्सर्वथा यदि भिन्नाः प्रतिपाद्यन्ते तदा यौगमतप्रवेशो मोमांसकस्य । अथ कथञ्चिदभिन्नास्तदा सिद्धं सामान्यस्य विशेषप्रत्ययविषयत्वं विशेषप्रत्ययविषयेभ्यो विशेषेभ्यः कथञ्चिदभिन्नस्य सामान्यस्य विशेषप्रत्ययविषयत्वोपपत्तेविशेषस्वात्मवत् । ततोऽनेकमेव करोतिसामान्यं सत्तासामान्यवत् ।
[ करोति क्रियानं शेति मन्यमाने दोषानाह ] नाप्यनशं', कथञ्चित्सांशत्वप्रतीतेः सांशेभ्यो विशेषेभ्योनान्तरभूतस्य सांशत्वोपपत्तेस्तत्स्वात्मवत् ।
[ तत्सामान्यं सर्वगतमिति मन्यमाने दोषानाहुराचार्याः ] "तथा न सर्वगतं तत्सामान्यं, व्यक्तयन्तरालेनुपलभ्यमानत्वात् । 12तत्रानभिव्यक्तत्वात्तस्या
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करता है यह बात सिद्ध हो गई।
क्योंकि विशेष ज्ञान के विषय भूत विशेषों से कथंचित् अभिन्न सामान्य ही विशेषज्ञान का विषय हो सकता है जैसे कि विशेष का स्वरूप कथंचित् अभिन्न होने से विशेषज्ञान का विषय है । इसलिए करोति सामान्य अनेक ही है सत्ता सामान्य के समान । अर्थात् जितने विशेष हैं उतने ही सामान्य हैं न कि एकसामान्य।
[ करोति सामान्य निरंश है ऐसा भाट्ट का कहना है उसका जैनाचार्य परिहार करते हैं ]
वह करोति सामान्य अनंश भी नहीं है क्योंकि कथंचित् अंशसहित ही प्रतीति में आ रहा है । अंशसहित-अवयवसहित घट पटादि विशेषभेद लक्षणों से अभिन्न सामान्य अंशसहित देखा जाता है जैसे कि उसका स्वरूप ।
[ वह सामान्य सर्वगत है ऐसा कहने पर जैनाचार्य दूषण दिखलाते हैं ] उसी प्रकार से वह सामान्य-सर्वगत भी नहीं हैं क्योंकि व्यक्ति व्यक्ति के अंतरालों में उपलब्ध नहीं होता है।
भावार्थ-यह भाट्ट करोति क्रिया सामान्य को महासत्ता रूप मानता है और कहता है कि यह करोति क्रिया नित्य है, एक है, निरंश है और सर्वव्यापी है इन चारों विशेषणों का जैनाचार्य ने क्रम-क्रम से निराकरण किया है। पहले भाट्ट ने करोति क्रिया को नित्य सिद्ध करने के लिए "प्रत्यभिज्ञान होता है" ऐसा हेतु दिया है। उस पर जैनाचार्य ने कहा कि यह "प्रत्यभिज्ञायमान" हेतु कथंचित् नित्य को सिद्ध करता है, सर्वथा नित्य को नहीं। क्योंकि तदेवेदं" यह वही है इस प्रकार पूर्व
1 जैनः। 2 घटपटादिरूपाः। 3 करोतिसामान्यात् । 4 भाट्टः। 5 सामान्यात् । 6 यावन्तो विशेषास्तावन्ति सामान्यानि न त्वेकमित्यर्थः। 7 करोतिसामान्यम् । 8 सावयवेभ्यो घटपटादिभ्यः। 9 भेदलक्षणेभ्यः । 10 सामान्यस्य। 11 जैनः। 12 भाद्रः।
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