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अष्टसहस्री
[ कारिका ३व्यापाररहितेपि करोत्यर्थस्य भावात्, तिष्ठति स्थानं करोतीति प्रतीतेः, गुणादिषु 'च करोत्यर्थाभावे सर्वथा कारकत्वायोगादवस्तुत्वप्रसक्तेः । तत एव करोत्यर्थो व्यापकः, 'सति सर्वत्र भावात् । अन्यथा तस्याकारकत्वेनावस्तुत्वात् सत्त्वविरोधात् । भवनक्रियेत्या'दिव्यवहारदर्शनाच्च सत्ता करोत्यर्थविशेषणमेव । करोत्यर्थस्यैव सर्वत्र प्राधान्याद्वाक्यार्थत्वम् । इति चेन्न', 10तस्य नित्यस्यैकस्यानंशस्य सर्वगतस्य सर्वथा विचार्यमाणस्यासम्भवात् ।
जाता है। इसलिए 'सत्ता' करोति क्रिया के अर्थ का विशेषण ही है।
भावार्थ-भाट्ट का कहना है कि "करोति-करता है" इस क्रिया का अर्थ सभी क्रियाओं में व्याप्त है । अतः यह करोति क्रिया का अर्थ ही वेदवाक्य का अर्थ है। जैसे-यजते, यागं करोति, गच्छति गमनं करोति इत्यादि। यज्ञ करता है, यज्ञ को करता है, जाता है गमन को करता है, यह करने रूप क्रिया सर्वत्र व्याप्त होने से ही नित्य है और वही वेदवाक्य का अर्थ है । इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार से तो भू धातु सत्ता अर्थ में है और अस् धातु भी सत्ता अर्थ में है "भवति, अस्ति" क्रियायें तो वास्तव में सर्वत्र व्याप्त हैं। “यजते, याजको भवति, पचति, पाचको भवति" । यज्ञ करता है याजक होता है, पकाता है पाचक होता है। इत्यादि रूप से भू धातु की भवति क्रिया को भी सर्वत्र व्याप्त होने से वेदवाक्य का अर्थ मान लो क्योंकि यह भवति क्रिया तो करोति में भी व्याप्त है जैसे-करोति, कारको भवति । तब भाट्ट ने कहा कि यह 'भवति' निष्क्रिय वस्तु गुण आदि में भी पाई जाती है यथा "आकाशोऽस्ति, रूपादयः संति ।" आकाश है, रूपादि हैं इत्यादि । अतः यह वेदवाक्य का अर्थ नहीं होगी क्योंकि वेदवाक्य का अर्थ तो यज्ञ को करने की क्रिया रूप है। इस पर जैनाचार्य पुनरपि कहते हैं कि इस प्रकार से तो परिष्पंदात्मक व्यापार से रहित में भी करोति क्रिया का अर्थ पाया जाता है जैसे-तिष्ठति, स्थानं करोति । ठहरता है स्थान करता है इन अकर्मक धातुओं में भी करोति क्रिया चली गई। इसलिए सर्वव्यापी महा सत्ता रूप भवति क्रिया ही वेदवाक्य का अर्थ हो जावे । तब उसने कहा कि यह "भवति" क्रिया तो "करोति" क्रिया के अर्थ का विशेषण है । अतः करोति क्रिया ही विशेष्य रूप होने से एवं सर्वत्र प्रधान रूप होने से वेदवाक्य का अर्थ है। इस पर और भी आगे ऊहापोह चलता है।
भाट्ट-करोति क्रिया का अर्थ ही सर्वत्र प्रधान होने से वेदवाक्य का अर्थ है ।
जैन--ऐसा नहीं कहना । क्योंकि आपके द्वारा मान्य वह करोति क्रिया सामान्य, नित्य, एक, अनंश और सर्वगत है इस पर विचार करने से सर्वथा ही वह करोति सामान्य, असंभव ही है अर्थात् भाट्ट करोति क्रिया को सामान्य, नित्य, एक, निरंश और सर्वगत मानते हैं आगे क्रमशः इन मान्यताओं का खण्डन किया गया है।
1 किञ्च। 2 क्रियां कुर्वद्धि कारकं । (ब्या० प्र०) 3 पर एव। 4 विद्यमाने वस्तुनि । 5 असति सर्वत्रभावे । 6 महासत्ता। 7 करण । (ब्या० प्र०) 8 हेत्वन्तरमिदम्। 9 जन आह। 10 करोतिसामान्यस्य ।
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