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________________ भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद [ १५७ दनात् । इति चेन्न-यज्यादिक्रियासामान्यस्य सकलयज्यादिक्रियाविशेषच्यापिनो नित्यत्वाच्छब्दार्थत्वाविरोधात्, सर्वक्रियाव्यापित्वात्करोतिसामान्यं शब्दार्थ इति चेत्तहि सत्तासामान्यं' शब्दार्थोस्तु, करोतावपि तस्य सद्भावात् । 'महाक्रियासामान्य व्यवस्थितिरूपत्वात् । यथैव हि पचति पाकं करोति, यजते यागं करोतीति प्रतीतिस्तथा पचति पाचको भवति, यजते याजको भवति, करोतीति कारको भवतीत्यपि प्रत्ययोस्ति । ततः करोतीत'2 रार्थव्यापित्वाद्भवत्यर्थस्यैव शब्दार्थत्वं' युक्तमुत्पश्यामः । [ निष्क्रियवस्तुनि अपि भवत्यर्थो विद्यतेऽतः क्रियास्वभावो नास्तीति भाट्टेनोच्यमाने जैनाचार्या निराकुर्वति ] स्यान्मतं "निर्व्यापारेपि16 वस्तुनि भवत्यर्थस्य प्रतीतेन क्रियास्वभावत्वं, 17निष्क्रियेषु गुणादिषु भवनाऽभावप्रसङ्गात्' इति चेन्न, करोत्यर्थेपि समानत्वात् । 1परिस्पन्दात्मक व्यवस्थितरूप ही है । अर्थात् सत्ता-सामान्य सर्वत्र व्यवस्थित ही रहता है। जिस प्रकार से “पचति-पाकं करोति, यजते-यागं करोति" यह प्रतीति आ रही है उसी प्रकार से "पचति, पाचको भवति, यजते, याजको भवति, करोतीति कारको भवति" यह ज्ञान भी हो रहा है। इसलिये "भवति" यह क्रिया इतर पचन आदि अर्थ में भी व्यापी होने से हम जैन "भवति" इस क्रिया के अर्थ को ही वेद-वाक्य का अर्थ युक्त समझते हैं किन्तु 'करोति' अर्थ को नहीं। [ निष्क्रिय वस्तु में भी भवति क्रिया का अर्थ देखा जाता है अतः वह क्रिया स्वभाव नहीं है ऐसी भाट्ट की मान्यता का निराकरण ] भाट्ट-निव्यापार-निष्क्रिय-वस्तु में भी भवति क्रिया का अर्थ देखा जाता है इसलिए वह क्रिया स्वभाव नहीं है अन्यथा निष्क्रिय गुणादिकों में सत्त्व के अभाव का प्रसंग आ जावेगा। जैन-ऐसा भी नहीं कहना। क्योंकि यह बात तो करोति क्रिया के अर्थ में भी समान ही है। देखिये ! परिष्पंदात्मक व्यापार से रहित में भी करोति क्रिया का अर्थ विद्यमान है "तिष्ठति, स्थानं करोति," ठहरता है, स्थान करता है। ऐसी प्रतीति आती है और दूसरी बात यह भी है कि गुणादिकों में करोति अर्थ का अभाव होने पर सर्वथा उनमें कारकपने का भी अभाव हो जावेगा पुनः वे गुणादि अवस्तु हो जावेंगें। इसीलिए वह करोत्यर्थ भी व्यापक है क्योंकि विद्यमान वस्तु में उसका सद्भाव है । अन्यथा वह कारक न होने से अवस्तु हो जावेगा पुनः उसका सत्त्व नहीं रहेगा। एवं महासत्ता रूप भवन क्रिया है इत्यादि रूप से व्यवहार भी देखा 1 अघटनात् । 2 जैनः। 3 यजतिसामान्यपचतिसामान्यादेः । (ब्या० प्र०) 4 करोत्यर्थविशेषस्य । 5 भाट्टः । 6 जैनः। 7 भवनक्रिया। 8 वाक्यार्थः। 9 महाक्रिया सत्तालक्षणा सैव सामान्यं तदेव रूपं यस्याः करोतिक्रियायाः । 10 महाक्रिया सामान्यरूपत्वात् । (ब्या० प्र०) 11 सत्तासामान्यस्य। 12 इतर:=पचनादिः। 13 न पुन: करोत्यर्थस्य । 14 वाक्यार्थत्वम् । 15 वयं जनाः। 16 निष्क्रिये। 17 अन्यथा। 18 सत्त्वस्य विनाशाद्गुणादीनामभाव आयातः । 19 [ परः प्राह ] क्रिया द्विविधा परिस्पन्दात्मिका (चलनात्मिका) भाववती च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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