SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टसहस्री [ कारिका ३ १५२ ] वा कथञ्चिदुभयस्वभावं वा 'संवेदयेत्—गत्यन्तराभावात् । प्रथमपक्षे न संवेद्यसंवेदकभावः-- संवेदनतद्व्यापारयोः सर्वथानन्तरत्वाद्वाक्यतद्वयापारयोः प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाववत् । द्वितीयपक्षेपि न तयोस्तद्भाव:- अनवस्थानुषङ्गात्तद्वत् । तृतीयपक्षे तु तदुभयदोषप्रसक्तेस्तद्वदेव कुतः संवेद्यसंवेदकभावः सिध्येत् 'अथ स्वार्थसंवेदन व्यापारविशिष्टं संवेदनमबाधमनुभूयमानं विकल्पशतेनाप्यशक्यनिराकरणं' संवेद्यसंवेदकभावं साधयतीत्यभिधाने' परस्यापि शब्दः स्वव्यापारविशिष्टः पुरुषव्यापार 1 भावयतीत्यबाधप्रतीतिसद्भावाद्वाक्यव्यापारो भावना 11वाक्यस्य विषयो व्यवतिष्ठते एवेति । है ? एवं इन तीन विकल्पों को छोड़कर और तो कोई गति उस ज्ञान की नहीं है। यदि पहला पक्ष लेवो तो संवेद्य--संवेदक भाव उस ज्ञान में नहीं बनेगा, क्योंकि आपने तो ज्ञान और उसके व्यापार में सर्वथा अभेद मान लिया है जैसे कि हमारे यहाँ शब्द और उसके व्यापार में सर्वथा अभेद मानने पर प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव नहीं हो सकता है। दूसरे पक्ष में भी उन दोषों का सद्भाव संभव ही है पूर्ववत् अनवस्था का प्रसंग आ जाता है, अर्थात् यदि ज्ञान से ज्ञान का व्यापार भिन्न ही है तब वह ज्ञान का व्यापार ज्ञान से अनुभव किया नाता हुआ व्यापारांतर से जाना जायेगा तो व्यापारांतर भाव्य होगा और वह व्यापारांतर भी ज्ञान से भिन्न होगा तो वह भी भिन्न-व्यापार से भाग्य होगा ऐसे अनवस्था आ जावेगी। तृतीय पक्ष में भी उन दोनों पक्षों में दिये गये दोष आ ही जावेंगे पुनः उसी प्रकार से संवेद्यसंवेदक भाव-ज्ञेय-ज्ञान भाव कैसे सिद्ध हो सकेगा? यदि आप जैन ऐसा कहें कि "स्वार्थसंवेदन व्यापार से विशिष्ट, अनुभूयमान ज्ञान बाधा रहित है, सैंकड़ों विकल्पों के द्वारा उसका निराकरण करना शक्य नहीं है अतः वह ज्ञान संवेद्य संवेदक भाव को सिद्ध कर देता है।" ऐसा आपके द्वारा मानने पर तो हम भाट्टों का भी शब्द अपने व्यापार से विशिष्ट होता हुआ यागलक्षण पुरुष व्यापार को भावित करता है । इस प्रकार से बाधा रहित प्रतीति का सद्भाव होने से शब्द का व्यापार ही भावना है वह पुरुष के व्यापार को कराती है अतः वह भावना ही वेदवाक्य का विषय है यह बात व्यवस्थित ही है। 1 स्वार्थग्रहणलक्षणम् । 2 ज्ञेयवस्तुग्रहणलक्षणो व्यापारः। 3 यदि पुनरर्थान्तरभूत एव संवेदनात्संवेदनव्यापार इति मतं तदास संवेदनव्यापारः संवेदनेन संवेद्यमानो व्यापारान्तरेण संवेद्यते चेतहि व्यापारान्तरभाव्यः स्यात् । व्यापारान्तरं तु यदि संवेदनादर्थान्तरं तथा तद्वयापारान्तरं व्यापारान्तरेण भाव्यमिति सत्यनवस्था। 4 भट्टो वदति । 5 एव । (ब्या० प्र०) 6 सत् । (ब्या० प्र०) 7 जैनः। 8 भाट्टस्य। 9 यागलक्षणम् । 10 (प्रेरयति) स्वपरग्राहिकातीन्द्रियशक्तिः करणरूपा। 11 शब्दः पुरुषव्यापारं भावयतीत्यादि वचनम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy