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________________ भावनावाद ] [ १५१ पुरुषव्यापारस्य अग्निष्टोमादिवाक्यमुपलभ्यमानं ' 'साधकमिदमित्यनुभवाद्वाक्यस्थ ' एव तद्व्यापारो भावना वाक्यस्य विषयतां समञ्चति तथा प्रतीतेः । अन्यथा' 'सर्वत्र विषयविषयिभावसंभावनाविरोधात् । प्रथम परिच्छेद [ भाट्टो वदति यत् जैनैर्मान्यं ज्ञानमपि स्वव्यापाराद् भिन्नमभिन्नं भिन्नाभिन्नं वेति त्रिषु पक्षेषु दोषावतारः ] संवेदनमपि हि भवतां स्वव्यापारं विषयी "कुर्वन् तदनर्थान्तरभूतमर्थान्तरभूतं कि शब्द से उस शब्द का व्यापार अभिन्न है या भिन्न ? शब्द से उसके व्यापार को अभिन्न मानने में आचार्य ने दोष दिया है कि आप भाट्ट के यहाँ शब्द अंश कल्पना से रहित हैं पुनः उनमें वाच्य वाचक सम्बन्ध कैसे बनेगा ? यदि शब्द में अंश की कल्पना करके वाच्य-वाचक भाव मानों तो भी अंश कल्पना के काल्पनिक होने से शब्द और उसका अर्थ भी कल्पित ही रहेगा । यदि शब्द से उसके व्यापार को भिन्न मानोगे तो भी वह शब्द के द्वारा प्रतिपादित किया गया शब्द का व्यापार उस शब्द से भिन्न होने से यह उस शब्द का व्यापार है ऐसा कैसे कहा जावेगा । एवं यदि वह शब्द का व्यापार भिन्न व्यापार से प्रतिपादित किया जावेगा तो अनवस्था आ जावेगी । इस पर भाट्ट ने शब्द से उसके व्यापार को भिन्नाभिन्न मान लिया । तब आचार्य ने कहा कि दोनों ही पक्ष में दिए गए दोष पुनः आपके ऊपर एक साथ आ जावेंगे क्योंकि आप अपेक्षा कृत भिन्नाभिन्न की व्यवस्था नहीं समझते हैं और यदि अपेक्षा को समझ लेंगे तब तो स्याद्वादी के पक्ष में सामिल हो जावेंगे फिर एकान्तवादी नहीं रहेंगे । भाट्ट - उपलब्ध होते हुए अग्निष्टोमादि वाक्य पुरुष व्यापार के साधक हैं इस प्रकार से अनुभव आता है अतः शब्द में स्थित ही शब्द का व्यापार भावना है और वही शब्द भावना वेदवाक्य के विषयपने को प्राप्त करती हैं क्योंकि वैसा ही अनुभव आ रहा है । अन्यथा - ऐसा न मानों तो सर्वत्र ज्ञान और अर्थ में विषय-विषयिभाव की संभावना ही विरुद्ध हो जावेगी । एवं जैसे आपने हमारे से प्रश्न किए हैं वैसे ही हम आप जैनियों से भी प्रश्न करेंगे कि - [ भाट्ट कहता है कि आप जैनों के द्वारा मान्य ज्ञान भी अपने व्यापार से भिन्न है या अभिन्न या भिन्नाभिन्न है ? इन तीनों पक्षों में दोषारोपण ] आपके यहाँ ज्ञान भी अपने स्वार्थ ग्रहण लक्षण व्यापार को विषयभूत करता हुआ उस ज्ञान से भिन्न अपने स्वभाव को जानता है या अभिन्न स्वभाव को अथवा कथंचित् उभय स्वभाव को जानता 1 गृह्यमाणम् । 2 भावकमिति पाठान्तरम् । 3 उल्लेखेन । (ब्या० प्र० ) 4 प्राप्नोति । 5 भावनाया वाक्यविषयत्वाभावे ! 6 ज्ञानार्थयोः । 7 यथास्माकं ( भाट्टानां ) विकल्पेन पृष्टं तथास्माभिरपि पृच्छयते जनः । 8 जैनानाम् । 9 स्वार्थग्रहणलक्षणम् । 10 स्वीकुर्वन् । (ब्या० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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